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जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत : ९३
परम्पराओं की विभिन्नता एवं उनके समन्वय के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि प्रस्तुत करता है। उसमें उल्लेखित कपिल, संजय, गर्दभिल्ल आदि के कथानक भी ऐतिहासिक मूल्य के माने जा सकते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययनसूत्र के गर्दभिल्ल और विक्रमादित्य के कथानक में उल्लेखित गर्दभिल्ल भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में जैन आचार्यों का जो क्रमिक इतिहास वर्णित है, उसके भी ऐतिहासिक मूल्य को नकारा नहीं जा सकता। उसमें वर्णित सभी आचार्य ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, चाहे उनके कालक्रम में क्वचित मतभेद हो सकता है, किन्तु उनकी ऐतिहासिक सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता।
इसी क्रम में ऋषिपालित द्वारा रचित देवेन्द्रस्तव नामक प्रकीर्णक में अशोक स्तम्भ के निर्माणकला की ऐतिहासिक पीठिका की सूचना हमें मिलती है। अशोक स्तम्भ की रचना-कला का यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण साहित्यिक आधार है।
प्रकीर्णक साहित्य के अनेक ग्रंथ समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित हैं। इन ग्रंथों में समाधिमरण करने वाले जिन साधकों के उल्लेख हैं उनके नाम श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य के अन्य ग्रंथों से भी संपुष्ट होते हैं, अत: उनकी ऐतिहासिकता से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है।
इस प्रकार जैनागम साहित्य की ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मूल्यवत्ता सिद्ध होती है। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के सम्बन्ध में यदि इन ग्रंथों का सहयोग लिया गया होता, तो निश्चित ही भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का एक नया स्वरूप ही हमें नजर आता। भारतीय सांस्कृतिक विकास के इतिहास में जो पालि और प्राकृत स्रोतों की उपेक्षा हुई है उसके कारण इसका यथार्थ चित्रण हमारे समक्ष प्रस्तुत नहीं हो सका है। जैन आगम साहित्य में कभी प्रश्नव्याकरणसूत्र का अंगीभूत रहे ऋषिभाषित नामक ग्रंथ में औपनिषदिक, बौद्ध निर्ग्रन्थ एवं अन्य श्रमण परम्पराओं के ३४५ ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। यह ग्रंथ अपनी भाषाशैली एवं रचनाकाल की अपेक्षा से प्राचीनतम अंग आगम आचारांग एवं सूत्रकृतांगसूत्र का समकालिक प्रतीत होता है। इस ग्रंथ में नारद, असितदेवल, पराशर, याज्ञवल्क्य, आरुणि, उद्दालक आदि औपनिषदिक ऋषियों का; सारिपुत्र, महाकश्यप और वज्जीपुत्र आदि बौद्ध श्रमणों का; गोलाशक आदि आजीवक श्रमणों का तथा पार्श्व और वर्धमान ऐसे जैन श्रमण परम्परा के महापुरुषों के उपदेशों का संकलन है। इन ऋषियों के उल्लेख औपनिषदिक, जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं, जिससे इनकी ऐतिहासिकता और इनके
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