SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसमें ब्राह्मणों और श्रमणों का समान अवदान है। बौद्ध धर्म-दर्शन भारतीय श्रमणधारा का एक प्रमुख अंग है। भारतीय श्रमण परम्परा का उल्लेख वैदिक काल से ही उपलब्ध होने लगता है। वेद विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में से है। ऋग्वेद में हमें बार्हतों के साथ-साथ आर्हतों एवं व्रात्यों के भी उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद में आर्हत-बार्हत ऐसी दो धाराओं के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वेदकालीन आर्हतों और व्रात्यों की यह परम्परा ही कालान्तर में श्रमणधारा के रूप में विकसित हई है। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो औपनिषदिक चिन्तन प्राचीन वैदिक एवं श्रमण चिन्तन का समन्वय स्थल है। मात्र यही नहीं औपनिषदिक चिन्तन में श्रमणधारा के अनेक तथ्य स्पष्ट रूप से उपलब्ध होते हैं, जो यह बताते हैं कि इस युग में वैदिकधारा श्रमणधारा से, विशेष रूप से उसकी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से, प्रभावित हो रही थी। आरण्यकों के काल से ही वैदिक ऋषि श्रमणधारा से प्रभावित होकर अपने चिन्तन में श्रमणधारा के आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात कर रहे थे। त्याग-वैराग्यमूलक जीवन-मूल्यों, संन्यास एवं निर्वाण के प्रत्ययों को आत्मसात करके वैदिक संस्कृति में आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि का विकास हो रहा था। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य द्वारा अपनी सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में विभाजित कर लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा का त्यागकर संन्यास ग्रहण करने और भिक्षाचर्या द्वारा जीवनयापन करने का जो निर्देश उपलब्ध होता है, वह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वैदिकधारा श्रमणधारा के जीवन मूल्यों को आत्मसात कर एक नव आध्यात्मिक संस्कृति को जन्म दे रही थी। उपनिषदों में यज्ञ-याग की समालोचना एवं ईशावास्योपनिषद् का त्यागमूलक भोग का निर्देश इस बात का प्रमाण है कि उपनिषद् श्रमणधारा के चिन्तन को आत्मसात कर रहे थे। सांख्य-योग की ध्यान एवं योग की परम्परा एवं महाभारत और गीता में हिंसापरक यज्ञों के स्थान पर प्राणीमात्र की सेवारूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy