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________________ Adhunika Jaina Samāja Ki Sāmājika Paristhiti 271 करने के लिये परस्पर झगड़ रहे हैं। इस निष्प्रयोजन कलह में लाखों-करोड़ों रुपयों का अपव्यय कर रहे हैं। दूसरी ओर श्वेतरम्बर मूर्तिपूजक, श्वेताम्बर स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरहपंथी तत्त्वज्ञान सम्बन्धी महत्त्वहीन भिन्नताओं के लिये परस्पर लड़ रहे हैं । दिगम्बर समुदाय में भी कुछ अन्दरूनी - आभ्यन्तरिक - अशान्ति मालूम होती है। यह सब शाखायें-प्रतिशाखायें पुनः भिन्न-भिन्न समुदायों में विभक्त हैं, जो समुदाय परस्पर एक-दूसरे को शान्तिपूर्वक रहने नहीं देते हैं । परन्तु प्रतिपक्षियों के सुन्दर कार्यों को नाश करने के लिये प्रयत्न करते हैं। जब ऐसे परिणामहीन झगड़े बन्द हो जावेंगे तब ऐसी बहुत-सी शक्तियाँ जाति-सुधार और सर्व साधारण का उत्थान करने में लाभदायक हो जावेंगी । आधुनिक भारतवर्ष में ऐसा सुधार शक्य है, इस कथन की पुष्टि पंजाब के जैनों के उदाहरण से होती है। इन लोगों के बारे में यह बात सुनी जाती है कि "उन्होंने कुछ वर्ष पहले भोजन तथा कन्या - व्यवहार की एक बड़ी मण्डली बना दी है, जिसके सभासद 'भावडा' इस नाम से प्रसिद्ध हैं और जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं है ।" पूर्व राजपूताना, संयुक्त प्रांत और बंगाल के मारवाड़ी जैनों में भी ऐसी बड़ी मंडलियाँ हैं जो कम से कम पेटा ज्ञाति की अपेक्षा नहीं रखती हैं। दक्षिणवासी जैनों के बारे में भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। यह बात सत्य है कि उपर्युक्त प्रसंगों में जैनों की छोटी-सी संख्या के विषय में विवेचन किया गया है, जो कि एक बड़े विशाल क्षेत्र में रहती हैं, तो भी 'ज्ञातीय संकुचितता त्याज्य हो सकती है' इस बात को बतलाने के लिये यह प्रसंग योग्य है। I गुजरात के कई एक जैन संघों में ऐसी मण्डियाँ भी विद्यमान हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न ज्ञातियों के सभासद परस्पर भोजन तथा कन्या - व्यवहार करते हैं । पाटन के जैनसंघ का प्रत्यक्ष दृष्टान्त है कि दस्सा पोरवाल, दस्सा श्रीमाल और दस्सा ओसवाल इन सम्प्रदायों में परस्पर उपर्युक्त प्रकार का सम्बन्ध विद्यमान है। वहाँ की प्राचीन रूढ़ि का ही यह परिणाम है, न कि सुधारकों का । दूसरी ओर गुजरात और काठियावाड़ में ऐसी भी मंडलियाँ हैं जिनमें एक ही ज्ञाति को भिन्न-भिन्न धर्म वाले जैन - वैष्णवादि लोग एक-दूसरे के साथ भोजन और कन्या-व्यवहार करते हैं, परन्तु ऐसे उदाहरण बहुत कम पाये जाते हैं। यदि उल्लिखित अपवादों को और दक्षिण भारतवर्षीय दिगम्बर जैनों की आदर्श स्थिति को भी एक तरफ कर दें, तो ऐसा कहना पड़ेगा कि आधुनिक जैन समाज की परिस्थिति आर्थिक लाभों के लिये अपने धर्म को छोड़ देने की दुःखोत्पादक भावना से और जैन धर्मावलम्बी सुधारक वर्ग में साहस नहीं होने के कारण से बहुत ही अस्वस्थ मालूम होती है। यह बात जैनधर्म के भविष्य के लिये दुःखदायक कल्पना उत्पन्न करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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