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________________ अयुक्त है, क्योंकि क्रियाकाल और निष्पत्तिकाल एक हैं। प्रत्येक समय में पृथक्-पृथक् कार्य प्रारम्भ होता है, जो क्रिया जिस क्षण में प्रारम्भ होती है वह निश्चय नय से उसी क्षण में पूरी हो जाती है। घट अन्तिम समय में प्रारम्भ होता है और अन्तिम समय में ही समाप्त होता है, अतः घट की उत्पत्ति का जो क्रियाकाल दीर्घ ज्ञात होता है, वह भ्रम है। किसी एक क्रिया के लिए अनेक समयों की आवश्यकता नहीं है। जैसे - वस्त्र की सिलाई कर रहे हैं तो एक बार सुई धागा डालने पर उतना कार्य हो गया, पर यह नहीं कि पूरी सिलाई होने पर ही उसे कहा जाये कि अब कृत है। क्रिया के साथ कार्य होता जमालि का पक्ष - प्रश्न होता है कि घट प्रथम या बीच के क्षणों में क्यों नहीं दिखाई देता है? यदि क्रिया के वर्तमान क्षण में घट को कृत नहीं माना जाता है, तो अतीत या अनागत क्रिया से वह कैसे उत्पन्न हो सकता है? उत्तरपक्ष - इस तर्क का समाधान यह है कि घट उत्पन्न करने की क्रिया अन्तिम क्षण में होती है, अतः वह उसी समय दिखाई देता है, उससे पहले क्षणों में घट की अन्य शिवक, स्थास, कोश, कुशुल आदि क्रियाएँ तथा कार्य होने से घटोत्पत्ति ज्ञात नहीं होती। पिण्ड आदि अवस्थाएँ घट से भिन्न हैं। अतीत-अनागत क्रियाएँ कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती हैं, क्योंकि वह असत् है। इसलिए वर्तमान क्रिया में ही कार्योत्पत्ति माननी पड़ेगी और उसी समय कार्य को कृत कहा जायेगा। पूर्वपक्ष - यदि क्रियमाण कृत नहीं है तो कृत किसे कहना? क्रिया बीतने पर तो उसे कृत (उत्पन्न किया हुआ) नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस समय क्रिया ही नहीं है, यदि क्रिया के अभाव में कार्योत्पत्ति माने तो क्रिया की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, क्रिया के प्रारम्भ होने से पहले भी कार्य हो जायेगा, क्योंकि क्रिया का अभाव दोनों में समान है। उत्तरपक्ष - यदि यह कहें कि क्रियमाण काल का कार्य नहीं रहता है, अतः उसे अकृत कहते हैं, तो यहाँ प्रश्न उठता है कि - कार्य, क्रिया से होता है या उसके बिना भी होता है? यदि क्रिया से होता है तो यह संभव नहीं कि क्रिया प्रथम समय से की जाये पइसमउधन्नाणं, परोप्पर विलक्खणाण सुबहुणं। दोहो किरियाकालो जइ, दीसइ किं व्य कुंभरस।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2315 अंते च्चिय आरद्धो जइ दीसइ तम्मि चेव को दोसो। अकयं व संपइ गए कह कीरउ कह व एस्सम्मि।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2317 441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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