SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 999
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अकलंक-जन्म : मैत्री जीमूत राजा का नीरद नामक छोटा भाई था जिसकी पत्नी का नाम पद्मारानी था। इस पद्मा रानी ने भी इसी समय में एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अकलंक रखा गया। मेरा और अकलंक का सुखपूर्वक पालन-पोषण अनेक प्रकार से होने लगा । हम दोनों साथ-साथ बड़े हुए, साथ-साथ धूल में खेले, धूल में लोटे और साथ-साथ बाल-क्रीडाएँ की। मेरा कभी काका के लड़के अकलंक से विरह नहीं हुआ। भवितव्यता ने बालपन से ही अकलंक के साथ मेरी मित्रता नियोजित कर दी थी जो दिनोंदिन गाढ होती गई और हमारा पारस्परिक स्नेह बढ़ता ही गया। फिर हम दोनों ने एक ही उपाध्याय के पास समस्त कलाओं का अध्ययन भी किया। हे सुन्दरी ! इस प्रकार प्रानन्द-कल्लोल करते हुए हम दोनों कामदेव के मंदिर रूप यौवनावस्था को प्राप्त हुए । [५४-५८] अकलंक बचपन में, कुमारावस्था में और युवावस्था में भी उच्च व्यवहार/ आचरण वाला, लघु कर्मी, भाग्यवान्, व्यसनरहित, दुर्व्यवहार-रहित, दुश्चेष्टारहित, शान्तमूर्ति, पवित्रात्मा, विनयी, देवपूजक, मधुरभाषी, स्थिरचित्त, निर्मलमन, स्वल्परागी, प्रकृति से ही विकार-रहित और साधारणतया परमार्थ का ज्ञाता न होने पर भी तत्वज्ञानी जैसा दिखाई देता था। फिर उसका सुसाधुओं से सम्पर्क परिचय हुआ, उनके पास आने-जाने के प्रसंग बढ़े और * उनके व्याख्यान सुन-सुन कर जैन आगमों का भी कुशल जानकार हो गया। हे भद्रे । धमिष्ठ प्रकृति का होते हुए भी अकलंक का मेरे प्रति स्नेहभाव होने से हम दोनों निरन्तर आनन्दपूर्वक क्रीडा विलास करते रहते । [५६-६३] ___ एक दिन मैं प्रातःकाल में विचक्षण अकलंक को साथ लेकर क्रीडा करने के लिये मनोहारी बुधनन्दन उद्यान में गया। मेरी इच्छा को मान देकर दोपहर तक वह मेरे साथ खेला। तत्पश्चात् जब उसकी इच्छा घर जाने की हुई तब मैंने कहा कि इस उद्यान के मध्य में एक बड़ा मन्दिर है, वहाँ चलकर थोड़ी देर विश्राम करें, फिर घर चलेंगे। [६४-६६] मुनि-दर्शन अकलंक ने मेरी बात मान ली और हम दोनों उद्यान के मध्यभाग में स्थित विशाल जिन मन्दिर में प्रविष्ट हुए। अन्दर जाकर हम दोनों ने नम्रभाव से जिनेश्वर भगवान् की स्तुति की और वापस बाहर आये । मन्दिर के बाहर अकलंक ने श्रेष्ठ मुनिगणों को देखा। पूछने पर मालूम हुआ कि अाज अष्टमी होने से वे नगर के उपाश्रय से यहाँ देव-वन्दन के लिये आये हैं । यह भी ज्ञात हुआ कि सभी साधुओं ने पहले तीर्थंकर भगवान् को विधिपूर्वक वन्दन किया, फिर अलग-अलग *पृष्ठ ६१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy