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________________ प्रस्तावना जाता है। दर्शन मोहनीय कर्म के कारण जीव अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय और अधर्म को धर्म मानता है। जैन दृष्टि से आत्मा के स्वगुणों और यथार्थ स्वरूप को आवरण करने वाले कर्मों में मोह का आवरण ही मुख्य है । मोह का आवरण हटते ही शेष आवरण सहज रूप से हटाये जा सकते हैं । जिसके कारण कर्त्तव्य और अकर्तव्य का भान नहीं होता, उसे दर्शन मोह कहते हैं। और, जिसके कारण आत्मा स्व-स्वरूप में स्थित होने का प्रयास नहीं करता, वह चारित्र मोह है। दर्शन मोह से विवेक बुद्धि कुण्ठित होती है तो चारित्र मोह से सद्प्रवृत्ति कुण्ठित होती है । अतः आध्यात्मिक विकास के लिये दो कार्य आवश्यक हैं—पहला, स्व-स्वरूप और पर-स्वरूप का यथार्थ विवेक, और दूसरा है-स्व-स्वरूप में अवस्थिति । प्रात्मा को स्व-स्वरूप के लाभ हेतु और आध्यात्मिक आदर्श की उपलब्धि के लिये दर्शन मोह, चारित्र मोह पर विजय-वैजयन्ती फहरानी होती है। इस विजय यात्रा में उसे सदैव जय प्राप्त नहीं होती, वह अनेक बार पतनोन्मुख हो जाता है। उसी का चित्रण प्राचार्य सिद्धर्षि ने बड़ी खूबी के साथ उपस्थित किया है। जो भी साधक विजययात्रा के लिये प्रस्थित होता है, उसे विजय और पराजय का सामना करना ही पड़ता है। पराजित होने पर यदि वह सम्भल नहीं पाता तो पुनः वह उसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, जहाँ से उसने विजय-यात्रा प्रारम्भ की थी। अन्तरात्मा में पहुँचा हुआ आत्मा भी पुनः बहिरात्मा बन जाता है। उसकी विकास यात्रा में बाधा समुत्पन्न करने वाले अनेक कर्म-शत्रुओं की प्रकृतियां रही हुई हैं। कभी कोई प्रकृति अपना प्रभाव दिखाती है, तो कभी कोई प्रकृति । हम पूर्व ही बता चुके हैं कि विकास यात्रा में अवरोध उत्पन्न करने वाला एक प्रमुख कारण कषाय है । कषाय जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है । 'कष' और 'पाय' इन दो शब्दों के संयोग से 'कषाय' शब्द बना है। यहाँ पर 'कष' का अर्थ संसार है अथवा कर्म और जन्म-मरण है। 'पाय' का अर्थ लाभ है। जिससे जीव पुनः-पुनः जन्म और मरण के चक्र में पड़ता है-वह कषाय' है । कषाय आवेगात्मक अभिव्यक्तियां हैं। तीव्र आवेग को कषाय कहते हैं और मंद आवेग या तीव्र आवेगों के प्रेरकों को नौ कषाय कहते हैं। नौ कषाय के हास्य, रति, अरति, भय, शोक, प्रभृति नौ प्रकार हैं। कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ, चार प्रकार का है, और प्रत्येक कषाय के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और अल्प की दृष्टि से चार-चार विभाग हैं। जब तीव्रतम क्रोध आता है, तो उस आत्मा का दृष्टिकोण विकृत हो जाता है, तीव्रतर क्रोध में आत्म-नियंत्रण की शक्ति नहीं रहती, तीव्र क्रोध आत्म-नियंत्रण की शक्ति में बाधा समुत्पन्न करता है और मंद क्रोध वीतरागता उत्पन्न नहीं होने देता। क्रोध एक मानसिक उद्वेग है, उसके कारण मानव की चिन्तनशक्ति और तर्क-शक्ति कुण्ठित हो जाती है, जिससे उसे हिताहित का भान नहीं रहता । वह उस आवेग में ऐसे अकृत्य कर बैठता है, जिसका पश्चात्ताप उसे चिरकाल तक बना रहता है । क्रोध की उत्पत्ति सहेतुक और निर्हेतुक दोनों प्रकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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