________________
प्रस्ताव ५ : वामदेव का अन्त एवं भव - भ्रमण
agfont को भागना ही पड़ेगा । सरलता के समक्ष माया कैसे टिकेगी ? अचौर्यता के समक्ष स्तेय / चोरी कैसे टिकेगी ? ] जब ये दोनों वामदेव को मिलेंगी तभी माया रस्ते से उसकी मुक्ति होगी । इस समय वह नाममात्र भी धर्म-प्राप्ति के योग्य नहीं है, अतः अभी उसके प्रति उपेक्षाभाव रखना ही उचित है । [ ६६३-६७० ] श्राचार्यदेव के वचन सुनकर मेरे मित्र महात्मा विमल ने वस्तुस्थिति को समझ कर मेरे प्रति उपेक्षाभाव धारण कर लिया और फिर मेरे सम्बन्ध में विचार करना भी छोड़ दिया । [६७१]
0
२२. वामदेव का अन्त एवं भव-भ्रमण
विमल के पास से भागकर मैं कांचनपुर गया । वहाँ के बाजार में एक दुकान पर सरल नामक सेठ बैठा था । मैं उसकी दुकान पर गया । मेरे शरीर में रही हुई बहुलिका ने उसी समय अपना प्रभाव दिखाया और उसके वशीभूत होकर मैं सेठ के पाँवों में गिर गया । कृत्रिम नाटक करते हुए मेरी आँखें आनन्दाश्र ुओं से भर गईं। मेरे नाटक को सत्य समझकर सरल सेठ का दिल भी पिघल गया, वह बोला- भद्र ! क्या हुआ ? तू क्यों रो रहा है ?
मैं- पिताजी ! आपको देखकर मुझे अपने पिताजी की याद आ गई । सरल सेठ - वत्स ! तू मत रो । यदि ऐसा ही है तो * श्राज से तू मेरा पुत्र
ही है ।
१०७
मैं- - श्राज से मैं भी आपको अपना पिता मानता हूँ ।
तत्पश्चात् सेठ मुझे अपने घर ले गया और अपनी स्त्री बन्धुमती को मुझे सौंप दिया । उसने मुझे स्नान, भोजन आदि करवाया और मेरा नाम तथा कुल आदि पूछा । मैंने अपना नाम, कुल आदि बता दिया । सेठ को जब ज्ञात हुआ कि मैं उसका सजातीय ही हूँ, उसके कुल का ही हूँ तो वह बहुत प्रसन्न हुआ । वह अपनी स्त्री से बोला
प्रिये ! हम वृद्ध हो गये हैं और अभी तक हमारे पुत्र नहीं हुआ है, यही सोचकर भगवान ने हमें पुत्र दिया है। आज से वामदेव को अपना पुत्र समझो ।
[६७२]
पति के वचन सुनकर बन्धुमती भी बहुत प्रसन्न हुई । सरल सेठ ने घर का सारा भार मुझे सौंप दिया, मानो मैं ही घर का स्वामी होऊं और दुकान में गुप्त
* पृष्ठ ५४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org