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________________ प्रस्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध मार्गानुसारिता---इस महागिरि पर चारित्रधर्मराज का राज्य है। उसके पुत्र यतिधर्म का यह प्रसिद्ध पराक्रमी संयम नामक योद्धा है। इस राज्य के प्रबल शत्रु महामोह आदि अत्यधिक दुष्ट हैं। इसे अकेला देखकर उन्होंने इसे खूब मारा। शत्रुओं की संख्या अधिक होने से इसे इतनी मार खानी पड़ी कि इसका सारा शरीर लहूलुहान और जर्जरित हो गया है। यतिधर्म के सुभट इसे रणभूमि से उठाकर लाये हैं । हे वत्स ! ये सुभट इसे स्वकीय राजमन्दिर में ले जा रहे हैं । इसी जैनपुर में इसके सभी सम्बन्धी रहते हैं। [४७६-४८२] मैंने कहा--मौसी ! शत्रुओं द्वारा अपने अनुचर को इतना घायल देखकर अब चारित्रधर्मराज क्या करेंगे, यह देखने की मुझे बड़ी उत्कंठा है, अत: श्राप कृपाकर मुझे उस शिखर पर ले चलिये और बताइये कि अब इस संयम का स्वामी चारित्रधर्मराज क्या करता है ? [४८३-४८४] चारित्रधर्मराज की सभा में विचार-विनिमय __ मौसी ने मेरी बात सुनकर कहा-वत्स ! ऐसा ही करते हैं। पश्चात् मौसी का अनुसरण करता हुआ मैं उसके साथ विवेकगिरि पर्वत पर गया ।* वहाँ से मैंने देखा कि जैनपुर के चित्तसमाधान मण्डप में राजमण्डल के मध्य में चारित्रधर्मराज बैठे थे। उनके आस-पास बहत से दूसरे राजा बैठे थे, जिन सब के नाम और गुणों का मौसी ने अलग-अलग वर्णन किया, क्योंकि वह स्वयं उन सबको भली प्रकार से जानती थी। इसी समय सैनिकगण घायल संयम को वहाँ लेकर शीघ्रता से आये और सारी घटना कह सुनाई। शत्रु द्वारा अपने व्यक्ति की ऐसी घायल दशा देख कर और सुनकर सारी सभा क्षुब्ध हो गयी। उस समय सभाजनों के भयंकरगर्जन और हथेलियों द्वारा ताल ठोंकने की प्रबल ध्वनि से पृथ्वी काँप उठी। उस खलबली से वह सभा गजित महासमुद्र जैसी दिखाई देने लगी। कई क्रोधित यमराज की तरह हंकार करने लगे, कईयों की भजायें फडकने लगीं, किन्हीं के रोंगटे खड़े हो गये, किन्हीं के मुह क्रोध से लाल हो गये, किन्हीं की भौहें चढ़ गईं, कोई छाती तानकर अपनी तलवारों पर दृष्टि डालने लगे, कोई क्रोधान्ध हो जाने से प्रारक्त नेत्र वाले हो गये, किन्हीं के प्रचण्ड अट्टहास से पृथ्वी काँपने लगी, किन्हीं के क्रोध से प्रातप्त शरीरों से पसीने की बदे टपकने लगीं और किन्हीं के शरीर क्रोध से अग्नि-पिंड के समान लाल हो गये। [४८५-४६४] समस्त राजमण्डल को क्षभित देखकर चारित्रधर्मराज को उनके मंत्री सबोध ने कहा-देव ! धैर्यवान सत्पुरुषों को यों असमय के घन-गर्जन की भाँति एवं कायर पुरुषों के समान क्षुब्ध होना उचित नहीं है। आवेश में आये हुए इन राजाओं को शान्त कीजिये, इनका अभिप्राय जानिये और इनकी परीक्षा भी करिये । [४६५-४६७] * पृष्ठ ५३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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