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________________ प्रस्ताव ५ : दुर्जनता और सज्जनता ४१ बना हो जिससे भीगा या द्रवित नहीं उतरा । मेरा हृदय मानो वज्र - शिला के कठोरतम पत्थर से कि वह जिनवचन रूपी अमृत के सिंचन से भी तनिक भी नरम, नहीं हुआ । इसके पश्चात् भगवान् की विशेष स्तुति कर मैं और विमल मन्दिर से बाहर निकले । प्रमूल्य रत्न को भूमि में छुपाना मन्दिर के बाहर आकर विमल बोला- भाई वामदेव ! यह रत्न देते समय रत्नचूड ने मुझ से कहा था कि यह बहुत ही मूल्यवान और प्रभावशाली है । किसी महान् लाभदायक प्रसंग पर ही इसका उपयोग किया जा सकता है । मुझे तो इस रत्न के प्रति न तो कोई विशेष इच्छा है और न कोई आकर्षण । मेरी उपेक्षा के कारण कहीं यह गुम न हो जाय अतः इसे यहीं किसी स्थान पर छिपाकर हमें चलना चाहिये । उत्तर में मैंने कहा -जैसी कुमार की इच्छा । मेरे इतना कहते ही विमल ने अपने वस्त्र के पल्ले से बंधे रत्न को मुझे सौंप दिया। मैंने जमीन में गड्ढा खोद कर रत्न को छिपा दिया और भूमि को समतल बनादी ताकि कोई पहचान न सके । फिर हम दोनों नगर में गये । वहाँ से मैं अपने घर चला गया और कुमार राजभवन को चला गया । दौर्जन्य : रत्न का अपहरण घर पहुँचते ही मेरे शरीर में स्तेय और बहुलिका ( माया ) ने प्रवेश किया । उनके प्रभाव में मैं सोचने लगा कि रत्न देते समय रत्नचूड ने कहा था कि इससे सर्व कार्य सिद्ध हो सकते हैं और यह चिन्तामणि रत्न के समान समस्त गुणों से परिपूर्ण है । ऐसी मूल्यवान वस्तु बार-बार प्राप्त नहीं होती, ऐसे रत्न को कौन छोड़ सकता है ? प्रतएव अन्य सब खटपट और चिन्ता छोड़कर किसी भी प्रकार इस रत्न को चुरा ही लूँ । [२५३-२५४ ] ऐसे अधम विचार के परिणामस्वरूप मैं नीचता पर उतर आया । विमल के स्नेह को भूल गया और उसके सद्भावों की अवगणना करदी । इस कृत्य का मुझे भविष्य में क्या फल मिलेगा, इसका भी विचार नहीं किया। महापाप कर रहा हूँ यह भी नहीं सोचा । कार्य प्रकार्य की तुलना भी नहीं की और मात्र स्तेय एवं माया के वशीभूत होकर मैं तुरन्त उस स्थान पर गया जहाँ भूमि में रत्न छिपा - कर रखा था । उस गड्ढे को खोदकर रत्न को वहाँ से निकाला और दूर दूसरे स्थान पर जमीन खोदकर उसे छुपा दिया । मेरे मन में तर्क उठा कि यदि विमल यहाँ आ गया और उसे जमीन खोदने पर रत्न नहीं मिला तो वह यही समझेगा कि मैंने रत्न चुरा लिया है, अतः मुझे इसी वस्त्र के साथ रत्न जितना बड़े पत्थर का टुकड़ा बाँधकर इसी स्थान पर छुपा देना चाहिये जिससे कि यदि कदाचित् विमल जमीन खोदकर देखे और उसे रत्न के स्थान पर पत्थर मिले तो वह समझेगा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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