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________________ [ ७ कुछ विशेषतायें प्रथम प्रस्ताव में सिद्धर्षि ने स्वयं को जिस रूप में प्रस्तुत किया है वह वस्तुतः अनुपमेय है । कथा के उपोद्धात में स्वयं सिद्धर्षि निष्पुण्यक नामक दीन-हीन महादुःखी दरिद्री भिक्षुक के रूप में अवतरित होते हैं । भिखारी समस्त व्याधियों से ग्रस्त और उन्माद दशा से पीड़ित है तथा संकल्प-विकल्प के जालों से ग्रथित है । कदाचित् वह कुछ भव्यता प्राप्त करने पर सर्वज्ञ शासन के चतुर्विध संघ स्वरूप राज-मन्दिर में प्रवेश पाता है। तद्दया अर्थात् प्राचार्य भगवन्तों की कृपा प्राप्त कर, धर्मबोधकर अर्थात् सद्धर्माचार्यों का उपदेश/निर्देश प्राप्त कर, तदया के सान्निध्य में विमलालोक अंजन, तत्त्वप्रीतिकर जल और महाकल्याणक भोजन अर्थात् रत्नत्रयी का येन-केन प्रकारेण आसेवन/अनुष्ठान कर, पात्रता प्राप्त कर सपुण्यक बन जाता है । अर्थात् सर्वज्ञ शासनस्थ संघ का एक अंग बन जाता है । फिर वही सपुण्यक साधु/सद्धमाचार्य सिद्धर्षि के रूप में स्वानुष्ठित रत्नत्रयी के प्रचार करने हेतु कथा के माध्यम से इस अलौकिक ग्रन्थ की रचना करते हैं। यह ग्रन्थ समग्र रूप से मनोवैज्ञानिक-धरा पर अवलंबित है। कथानायक जीव/आत्मा के साथ संसार में परिभ्रमण करते हुए जितनी भी घटनायें घटित होती हैं, वरिणत की गई हैं, वे सब यथार्थ हैं, कपोल कल्पित नहीं । ग्रन्थ में वर्णित प्रत्येक घटनायें आज भी क्रोधादि कषायों और पांचों इन्द्रियों के विकारों से मोहाविष्ट मानव के जीवन से सम्पक्त हैं । उसके जीवन से एक भी अछूती नहीं हैं। आज भी मानव इन घटनाचक्रों का येन-केन प्रकारेण स्वयं अनुभव भी करता है । दूसरों के जीवन में घटित होता देखता भी है और सुनता भी है । यही कारण है कि ग्रन्थकार ने कथा का अवलंबन/माध्यम लेकर अनुभूतिपरक, दृष्ट एवं श्रुत घटनाओं का सजीव चित्रण किया है । सिद्धर्षि स्वयं कहते हैं :-- इह हि जीवमपेक्ष्य मया निजं मदिदमुक्तमदः सकले जने । लगति सम्भवमात्रतया त्वहो, गदितमात्मनि चारु विचार्यताम् । (प्रथम खण्ड पृ. १३६) अर्थात् मैंने मेरे जीव की अपेक्षा (माध्यम) से यहाँ जो कुछ कहा है वह प्रायः कर सब जीवों के साथ भी घटित होता है । जिन उपर्युक्त घटनामों का वर्णन किया गया है, वे घटनायें आपके साथ घटित होती हैं या नहीं? इस पर आप अच्छी तरह विचार करें। इस ग्रन्थ में एक महत्त्व की बात का स्थल-स्थल पर विशेष रूप से लेखक ने वर्णन किया है, जो प्रत्येक मानव के लिये मननीय, अनुकरणीय और आचरणीय है । वह वर्णन है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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