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________________ उपमिति-भव प्रपंच कथा मनुष्य ! मैं बताता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो । तुझे याद होगा कि पहले तू असंव्यवहार नगर में रहता था। उस समय तेरे पास मेरे जैसे अनेक मित्र थे, पर मैं उस समय तेरा मित्र नहीं बन पाया था। इसके बाद तू एक समय भ्रमण की कामना से इस नगर से बाहर निकल गया। फिर तू एकाक्षनिवास नगर और विकलाक्षपुर में बहुत बार घूमा। घूमते-घूमते तू पंचाक्षपशुसंस्थान नगर में आ पहुंचा। इस नगर में संज्ञि संज्ञक (संज्ञा वाले) गर्भज कुलपुत्र रहते हैं। अनेक स्थानों पर घूम फिर कर तू भी उनकी टोली में चला आया। जब तू गर्भज संज्ञी पंचाक्ष-पशु कुलपुत्र में उत्पन्न हुआ तब मैं तेरा मित्र बना, पर मैं छिपकर रहता था इसलिये तू मुझे नहीं पहचान सका। फिर तो तेरा इधर-उधर घूमने (भ्रमण करने) का स्वभाव ही पड़ गया । जिससे तू अपनी स्त्री भवितव्यता के साथ अनन्त स्थानों में अनेक बार भ्रमण करता रहा । तुझे याद होगा कि एक बार तू कुतूहल से घूमते हुए तेरी स्त्री के साथ बाह्य नगर सिद्धार्थपुर गया था। उस समय तू नरवाहन राजा के राजमहल में रिपुदारण के प्रसिद्ध नाम से कुछ दिन रहा था।* हे बापू ! तेरा असली नाम तो संसारी जीव है किन्तु भिन्न-भिन्न स्थानों में निवास करते-करते बारबार तेरा नाम परिवर्तित होता रहता है । हे सुलोचन मित्र ! उस समय तू मुझ से भली प्रकार परिचित हुआ था। उस समय तू मुझे मृषावाद के नाम से जानता था । तूने मेरे साथ बहुत आनन्द किया था, अनेक प्रकार के भोग भोगे थे और मुझे भली प्रकार प्रसन्न किया था। उस जन्म में तुझे मेरे ज्ञान और कौशल के प्रति अतिशय प्रम था। एक बार तूने मुझे प्रसन्नतापूर्वक पूछा था कि, मित्र ! अानन्ददायिनी यह कला-कुशलता तुझे किसके प्रसाद से प्राप्त हुई है ? उत्तर में मैंने कहा था कि मूढ़ता और रागकेसरी की माया नामक पुत्री है, उसे मैंने बड़ी बहिन बना रखा है। उसी माया के प्रसाद से मुझे यह कुशलता प्राप्त हुई है। वह सर्वदा मेरे साथ ही रहती है और बड़ी बहिन होने से माता जैसा प्रेम रखती है । यह छोटे बच्चे भी जानते हैं कि जहाँ-जहाँ मृषावाद रहता है उसके साथ माया तो रहती ही है । उस समय तूने मुझे अपनी बहिन दिखाने के लिये कहा था। उस समय मैंने तेरी माँग को स्वीकार किया था। बापू ! तुम्हारी उसी बात को याद कर आज मेरी बहिन को साथ लेकर उसकी पहचान कराने आया हूँ। बापू ! रिपुदारण के जन्म में तेरी मेरे प्रति मित्रता, स्नेह और आकर्षण इतना अधिक था कि उसका जितना वर्णन करू वह थोड़ा है। पर, अभी मैं तेरे पास खड़ा हूँ तो भी तुम मुझे नहीं पहचानते हो, इससे अधिक शोक की बात क्या हो सकती है ? मैं सचमुच में भाग्यहीन हूँ कि तेरे जैसा परम इष्ट मित्र मुझे भूल गया और पहले के स्नेह को आज याद भी नहीं करता। अब में कहाँ जाऊँ और क्या करूँ ? इस कारण अभी मेरी ऐसी चिन्ताजनक और दुःखदायक स्थिति बन गई है । (१६-४५) * पृष्ठ ४७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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