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प्रस्ताव ४ : रिपुदारण का गर्व और पतन
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योगेश्वर के साथ वाले पुरुष तालियाँ पीट-पीट कर नाचने-कूदने लगे । फिर मुझ से नाटक करवाते हुए वे तीन ताल का रास करने लगे । वे गाने लगे :यो हि गर्वमविवेकभरेण करिष्यते, बाधकं च जगतामनृतं च वदिष्यते ।
नूनमत्र भव एव स तीव्रविडम्बनां, प्राप्नुवीत निजपापभरेण भृशं जनः ।। [ ४३८ ध्रुवक ]
प्राणी विवेक की बहुलता के कारण गर्व करते हैं और विश्व को बाधा पहुँचाने वाला असत्य बोलते हैं वे वस्तुत: इस भव में ही अपने पाप के बोझ से तीव्र विडम्बनाओं को और विविध दुःखों को प्राप्त करते हैं ।
इस पद को वे मुहुर्मुहु उल्लास से गाने लगे । कुण्डल (घेरा) बनाकर, मुझे मध्य में लेकर, वृत्ताकार घूमते हुए ललकार ललकार कर जोर-जोर से गाते हुए नाचने लगे । नाच चलते हुए मैं प्रत्येक के पैरों में पड़ने लगा और लोग मेरी हँसी उड़ाने लगे । इस प्रकार मैं भी उनके साथ-साथ नाचता रहा । नाचते-नाचते जब वे उच्च समवेत स्वर में गाते तब मुझे भी उल्लसित होकर जोर से गाने और नाचने का दिखावा करना पड़ता' साथ में ताल भी देता जाता । उन्होंने गायन का दूसरा पद प्रारम्भ किया
अरे लोगों ! श्राप इस श्राश्चर्योत्पादक कौतूहल को देखें ! शैलराज महामित्र के साथ विलास करने का फल तो देखें ! यह जो रिपुदारण पहले अपने गुरुजनों और देवताओं को भी नमस्कार नहीं करता था (अपनी हेठी समझता था) वही आज सेवकों के पैरों में गिर गिर कर नमस्कार कर रहा है, जरा आश्चर्य तो देखो !
उस समय स्वतः मेरे मुख से भी निम्न पद निकल गया
शैल राजवशवर्तितया निखिले जने, हिण्डितोऽहमनृतेन वृथा किल पण्डितः । मारिता च जननी हि तथा नरसुन्दरी, तेन पापचरितस्य ममात्र विडम्बनम् ||४४०॥ यो हि गर्वमविवेकभरेण करिष्यते । इत्यादि
पृष्ठ ४६७
पश्यतेह भव एव जनाः कुतूहलं, शैलराजवरमित्रविलासकृतं फलम् । यः पुरैष गुरुदेवगणानपि नो नतः, सोऽद्य दासचरणेषु नतो रिपुदारण: ।। ४३६ ।। यह गर्वमविवेकभरेण करिष्यते,
इत्यादि
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