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________________ ६४८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा बात देखिये, नरेश्वर ! जिस प्रकार मैंने किया है, यदि वैसा ही आप भी करें तो आपके सम्बन्ध में भी वैसा ही घटित हो सकता है । मात्र आप को भी मेरी ही भांति प्रयत्न करना पड़ेगा। आपकी मनोकामना हो तो आपको एक क्षण में मैं विवेक पर्वत दिखा सकता हूँ। फिर मेरे जैसा अन्तरंग परिवार आपको भी तुरन्त स्वतः हो प्राप्त हो सकता है। उसके पश्चात् आप भी थोड़े ही समय में महामोह राजा और उसके परिवार पर विजय प्राप्त कर सकेंगे और लोलता का तिरस्कार कर समग्र साधुओं के मध्य प्रानन्दपर्वक रह सकेंगे। [३७८-३८१] नरवाहन को वराग्य : दीक्षा विचक्षणाचार्य के ऐसे मनोरम वचन सुनकर राजा नरवाहन अपने मन में सोचने लगे, प्राचार्य भगवान् ने जो बात कही है वह तो दीपक की भांति स्पष्ट है कि जो अपने बाहुबल से उत्साह पूर्वक आगे बढ़ते हैं, प्रभूता उनके हाथों में स्वतः ही आता है, अर्थात् सफलता उनके चरण चूमती है। (प्रयत्न किये बिना कुछ भी नहीं मिलता और प्रयत्न करने वाले को तो जो चाहिये वह सब कुछ मिलता है।) लगता है, आचार्य भगवान् मुझ से कह रहे हों कि हे राजन् ! तुम भागवती दीक्षा ग्रहण करो, जिससे मुझे जो कुछ प्राप्त हुआ है वह सब तुम्हें भी प्राप्त हो जाय । प्राचार्य भगवान् ने तो वास्तव में मुझे श्रेष्ठतम उपदेश दिया है, अतः मुझे अब दीक्षा ग्रहण करनी ही चाहिये। ऐसा मन में संकल्प किया। विचक्षणसूरि का वृत्तांत सुनकर वैराग्यपूर्ण अन्तःकरण होते ही नरवाहन राजा की अनिष्ट पाप-प्रकृति के परमाणु नष्ट हो गये, अतः उसी क्षण राजा ने प्राचार्य के पाँव छ कर कहाभगवन् ! यदि आप मुझ में ऐसी योग्यता पाते हों तो जैसा आपने किया है, वैसा ही मैं भी करना चाहता हूँ। अधिक बोलने से क्या लाभ ? मुझ पर कृपा कर आप मुझे जैन भागवती दीक्षा प्रदान करें। मुझे पूर्ण आशा है कि आपकी कृपा से सब कुछ श्रेष्ठ होगा। [३८२-३८८] उत्तर में विचक्षणसूरि ने फिर से कहा-हे राजन् ! आपका निश्चय अत्युत्तम है । आपके जैसे भव्य पुरुषों को ऐसा ही करना चाहिये, यही अापका विशेष कर्तव्य है । हे राजन् ! मुझे विश्वास है कि मेरे वचन के गूढार्थ को आप लभी-भांति समझ गये होंगे। मेरा शुभ प्राशय भी आपके ध्यान में आ गया होगा। उस सच्ची समझ के परिणामस्वरूप ही आपको यह सत् उत्साह जागृत हुआ है, यह अच्छा ही है । क्योंकि, जब महामोह आदि भयंकर शत्रु चारों तरफ 'घेरा डालकर कूद-फांद कर रहे हों तब सुदृढ़ दुर्ग से भली प्रकार रक्षित क्षेमकारी जैनपुर में प्राश्रय लेना कौन नहीं चाहेगा? गृहस्थाश्रम तो दु:ख-समूह से भरा हया है, अत: जिस प्राणी को सुख के भण्डार जैनपुर का सम्यक् ज्ञान हो गया हो वह ऐसे गृहस्थावास में चिन्तारहित होकर कैसे निवास कर सकता है ? अतः ऐसे महा भय के समय एक क्षण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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