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________________ ६२८ उपमिति भव-प्रपंच कथा लिये हितकारी हो, आवश्यकता से अधिक शब्दों का प्रयोग न हो और जगत् को श्रह्लादित करने वाला हो ऐसे वचन ही बोलो । सत्यधर्म की श्राज्ञा का ये महामुनि अक्षरशः पालन करते हैं अर्थात् सत्य वचन ही बोलते हैं । [ १७६ - १८० ] ८. शौच - युबराज के पास बैठे पाठवें व्यक्ति का नाम शौच है । यह प्राणियों को बाह्य और आन्तरिक पवित्रता रखने का उपदेश देता है । (४२ दोषरहित आहार-पानी लेने आदि को बाह्य शौच या द्रव्य पवित्रता कहा जाता है और कषाय रहित होकर शुद्ध अध्यवसाय द्वारा अच्छे परिणाम रखने को भावशीच या आन्तरिक पवित्रता कहा जाता है ।) ये मुनिपुंगव इस शौच के आदेशों का भी पूर्ण - तया पालन करते हैं | | १८१] ६. श्राकिञ्चन्य – वत्स ! उसके बाद छोटे बालक की आकृति वाला जो नौवां मनोहारी पुरुष दिखाई दे रहा है उसका नाम श्राकिञ्चन्य है । यह श्रमणपुंगवों का अतिवल्लभ है । वत्स ! यह मुनिगरणों से बाह्य और अन्तरंग परिग्रह का त्याग करवा कर उन्हें निष्परिग्रही बना देता है और उनके मानस को स्फटिक जैसा अत्यन्त निर्मल एवं स्वच्छ बना देता है । इसका दूसरा नाम निष्परिग्रह भी है । (धन, धान्य, खेत, मकान, सोना, चांदी, धातु, द्विपद, चतुष्पद आदि बाह्य परिग्रह और कषाय तथा मनोविकार आदि अन्तरंग परिग्रह हैं । [ १८२ - १८३ ] १०. ब्रह्मचर्य - वत्स ! यतिधर्म परिवार में गर्भज जैसा मनोहर बालक बैठा दिखाई दे रहा है वह ब्रह्मचर्य के नाम से विख्यात है और मुनियों को हृदय से प्रिय है | दिव्य या औदारिक शरीर वालो किसी भी देवांगना या स्त्री के साथ या तिर्यञ्च स्त्री के साथ मन, वचन, काया से संयोग करना नहीं, करवाना नहीं और करने वाले की प्रशंसा करना नहीं, ऐसा नवकोटि विशुद्ध उपदेश यह दसवाँ पुरुष देता है । अर्थात् ब्रह्म का पूर्णरूप से स्पष्टतः निर करण करता है । [ १८४ - १८५ ] साथ यह यतिधर्म वत्स ! इस प्रकार सुन्दर दस पुरुषों के परिवार के युवराज जैन सत्पुर में लीला कर रहा है और सम्पूर्ण नगर में घूम-घूम कर अपना प्रभाव बतलाता है । [१८६ | सद्भावसारता पुत्रवधु भाई प्रकर्ष ! श्रमरणधर्म युवराज की अत्यन्त सुन्दर, कान्तियुक्त और निर्मल नेत्रों वाली सद्भावसारता नामक पत्नी है । चारित्रधर्मराज की पुत्रवधु सद्भावसारता मुनियों को बहुत ही प्रिय है और युवराज श्रमणधर्म तो इसके प्रति इतना अधिक अनुरक्त है कि वह इसके बिना एक क्षरण भी नहीं जी सकता । युवराज को अपनी पत्नी पर अत्यधिक स्नेह और सच्चे हृदय से प्रेम है । इनके दाम्पत्य प्रेम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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