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उपमिति भव-प्रपंच- कथा
भगवान् की आज्ञा रूपी स्त्री की आराधना करते हैं । ग्रहण, शिक्षा और श्रासेवना शिक्षारूपी ललना की सेवा करते हैं ।
मामा ! आप देखिये कि संसारी प्राणी जैसे मूर्छा, श्रानन्द, स्नेह, प्रेम, संतोष, हर्ष, द्व ेष, क्रोध, रोष, अहंकार, विश्वास, विस्मय, गूढ़ता, वंचन, लोभ, वृद्धि, रक्षा, तृष्णा, हिंसा, भय, घृणा, रमरणता, हास्य, उद्व ेग, शोक, तिरस्कार, निन्दा, युवति प्राराधना, युवति-सेवा आदि भावों में रत रहते हैं वैसे ही जैनपुरवासी भी मूर्छा, स्नेह, प्रेम श्रादि सर्व भावों में एक या दूसरे प्रकार से अनुरक्त दिखाई देते हैं । आप जानते हैं कि महामोह आदि अन्तरंग शत्रु संसारी प्राणियों में मूर्छा आदि समस्त भाव फैलाते हैं, वे ही भाव जब जैनपुरवासियों में भी स्पष्टतः दिखाई दे रहे हैं, तब आप कैसे कहते है कि जैनपुरवासियों ने महामोह आदि राजाओं को दूर भगा दिया है ? [६९-७० ]
विमर्श - भाई ! पहले तुमने जो महामोह आदि देखे थे उनसे जैन लोगों के महामोह आदि भिन्न-भिन्न हैं । यहाँ जो महामोह आदि दिखाई देते हैं वे जैन लोगों के प्रति अत्यन्त प्रेमा । हैं, बन्धुता रखने वाले और उनका श्रेय बढ़ाने वाले हैं । महामोहादि दो प्रकार के हैं । प्रप्रशस्त - जो सर्व प्राणियों के शत्रु हैं और प्रशस्तजो सब के अतुलनीय बन्धु हैं । पहले प्रकार के अप्रशस्त मोहादि प्राणियों को संसार चक्र में धकेलते हैं, उनका पतन कराते हैं, क्योंकि, वे स्वभाव से ही वैसे हैं । जब कि दूसरे प्रकार के प्रशस्त मोहादि प्राणियों की उन्नति कराते हैं, उन्हें निर्वृत्ति-मार्ग की तरफ ले जाते हैं, क्योंकि इनका स्वभाव हो ऐसा है । जैन सज्जनों के पास से अप्रशस्त मोहादि दूर हो गये हैं और प्रशस्त मोहादि उनके साथ हैं जिससे जैनपुरवासी सज्जन बनकर निरन्तर श्रानन्द में रहते हैं ।
इस प्रकार समस्त प्रकार के कल्याणों का उपभोग करने वाले जैन सज्जनों का स्वरूप-वर्णन करने के पश्चात् अब मैं विवेकगिरि के शिखर पर आये हुए चित्त समाधान मण्डप आदि के बारे में बताता हूँ । [७१-७६ ]
चित्त समाधान मण्डप
इस मण्डप में ऐसी अद्वितीय शक्ति है कि जब वह प्राणी को प्राप्त हो जाता है तब अपने वीर्य से प्राणी को अतुल सुखी बनाता है । त्रैलोक्य के बन्धु महाराजा के बैठने के लिये स्रष्टा ने यह मण्डप बनाया है । जब तक प्राणी को चित्तसमाधान मण्डप की प्राप्ति नहीं होती तब तक सम्पूर्ण भवचक्र नगर में प्राणी को सुख की गन्ध भी नहीं मिल सकती । [ ७७-७६]
निःस्पृहता- वेदो
भाई प्रकर्ष । मण्डप का स्वरूप बताने के बाद अब मैं उस मण्डप के मध्य बनी निःस्पृहता - वेदी के सम्बन्ध में बताता हूँ । जो लोग इस निःस्पृहता-वेदी का पुन: पुनः स्मरण करते हैं उन्हें शब्दादि इन्द्रिय भोग तो
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