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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
लढकते हए जमीन पर आ गिरते हैं और उनके शरीर का ऐसा चरा हो जाता है कि वे कायर भय से शिखर की तरफ देखते हुए भाग खड़े होते है। इस शिखर पर मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा आदि रूप किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं होता। ऐसा लगता है कि विवेक पर्वत पर रहने वाले प्राणियों के शत्रु अन्तरग राजाओं को नष्ट करने के लिये ही इस शिखर का निर्माण हुआ है । भाई ! वस्तुतः यह शिखर उज्ज्वल, अति विशाल, अत्यन्त ऊंचा, सर्वजन सुखकारी और बहुत ही सुन्दर है ।
[४५-५१ । जैनपुर
__ भाई ! अप्रमत्तत्व शिखर के वर्णन के पश्चात् अब जैनपुर का तात्त्विक वर्णन सून । यह श्रेष्ठ नगर, अक्षय आनन्द प्राप्त करवाने का कारण है । पुण्यहीन प्राणी भवचक्र में चाहे जितने समय भटकते रहें तब भी उनको इस पुर की प्राप्ति होना अति दुर्लभ है, दृष्टिगत होना भी अशक्य है। क्योंकि, अनन्तकाल तक भवचक्र में भटकते हुए प्राणी (जब अोघदृष्टि का त्याग कर योगदृष्टि में आते हैं तब) बड़ी कठिनाई से सात्विक-मानसनगर में आते हैं। उनमें से कई एक तो अनेक भवों तक इस भवचक्र में भटकते रहते हैं परन्तु सात्विक-मानसपुर उन्हें दृष्टिगोचर ही नहीं होता । यदि कभी थोड़े समय के लिये सात्विक-मानसपुर मिल भी जाय तब भी वे थोड़े समय तक वहाँ रह कर फिर भवचक्र में चले जाते हैं । पौर,व हाँ तो अनन्त नगर हैं इसलिये उनका कुछ पता ही नहीं लगता। ऐसे प्राणी इस श्रेष्ठ विवेक पर्वत के दर्शन ही नहीं कर पाते । इस प्रकार भवचक्र और सात्विक-मानसपुर के बीच अनेक बार भटकते हुए कभी उनकी दृष्टि विवेक पर्वत पर पड़ जाती है। कितने ही प्राणी तो स्वयं अपने ऐसे शत्रु होते हैं कि अपनी आँखों से ऐसे सुन्दर विवेक पर्वत को देखकर और उसकी वास्तविकता को समझकर भी उस पर चढ़ने का प्रयत्न नहीं करते और वापस भवचक्र में चले जाते हैं । कुछ प्राणी कदाचित् विवेक पर्वत पर चढ़कर भी अति सुन्दर किन्तु महा दुर्लभ अप्रमत्तत्व शिखर को नहीं देख पाते । कुछ इस शिखर को देखकर भी उस पर चढ़ने का प्रयत्न नहीं करते और आलस्यपूर्वक भवचक्र में ही प्रानन्द मानकर बैठे रहते हैं। अर्थात् पर्वत और उसकी चोटी पर चढ़ने के परिश्रम के भय से वे भवचक्र के दुःख में ही आनन्द मानकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं । जो भाग्यशाली प्राणी इस मनोहर अप्रमत्तत्व शिखर पर चढ़ जाते हैं वे ही फिर इस जैनपुर को देख सकते हैं, अन्यथा जैनपुर का दर्शन कराने वाली सामग्री का भवचक्र में मिलना अति दुर्लभ है । वत्स ! इसीलिये मैंने पहले कहा था कि भवचक्र में भ्रमण करने वाले प्राणियों को सतत आनन्द का कारण इस जैनपुर का प्राप्त होना अति दुर्लभ है । यह जैनपुर अनेक रत्नों से परिपूर्ण है, सब प्रकार के सुखों की खान है और समस्त संसार की श्रेष्ठतम सारभूत वस्तुओं का भी सार जैसा है।
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