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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
ही नहीं कर सकते । इस नगर में सम्पूर्ण दुःखों का अभाव है। इसमें अनन्त काल तक सम्पूर्ण एवं निर्द्वन्द्व आनन्द रहता है। अतः व्याधि, चोर, शत्रु, परमाधामी आदि कोई भी यहाँ किसी प्रकार का उपद्रव नहीं कर सकते । इस नगर की इस विशेषता को नैयायिकादि समस्त पुरों के सभी निवासी जानते हैं, अत: लोकायतों (नास्तिका)के अतिरिक्त सभी इस नगरी में पहुँचने की इच्छा रखते हैं। किन्तु. इस निर्वत्ति नगर में पहुँचने के मार्ग इन लोगों ने अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार बना लिये हैं, जिससे इन मार्गों में परस्पर विरोध पैदा हो गया है। परिणाम स्वरूप इन लोगों ने निवत्तिनगर में जाने के लिये जिन अनेक मार्गों की योजना को है, वे युक्तियुक्त नहीं हैं, न्याय की दृष्टि से स्पष्ट विरोध वाले हैं और तर्क के समक्ष तो टिक ही नहीं सकते । जब कि विवेक पर्वत के अप्रमत्तत्व शिखर पर स्थित जैनदर्शनपुर के निवासियों ने निर्वत्ति नगर जाने का जो मार्ग देखा है, निर्माण किया है, वह सन्मार्ग है, मनोहर है, विरोधरहित है, युक्तियुक्त और तर्कसंगत है । इस मार्ग पर चलने से लोग अवश्य ही निर्वत्ति नगर पहुँचते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं बिना किसी पक्षपात के वास्तविकता का वर्णन तेरे समक्ष कर रहा हूँ। नीचे बसे हुए अन्य पुरों के निवासियों पर मिथ्यादर्शन अपना वर्चस्व स्थापित कर सकता है, किन्तु इस शिखर पर स्थित पुर पर नहीं । मिथ्यादर्शन के प्रताप से उन लोगों की बुद्धि इतनी कुण्ठित हो जाती है कि वे तत्वदृष्टि से निर्वृत्तिनगर ले जाने के बजाय उसके विपरीत दिशा में ले जाने वाले मार्ग को ही वास्तविक मोक्ष मार्ग मान बैठते हैं। अर्थात् वे मोक्ष के सच्चे मार्ग को न जानकर उसके विपरीत मार्ग को ही सच्चा मानने लगते हैं। किंतु, शिखर पर स्थित जैनदर्शनपुर के लोग मोक्ष के सच्चे मार्ग को जानते हैं और विपरीत मार्ग को सच्चा मार्ग मानने की भूल कभी नहीं करते, इसीलिये मिथ्यादर्शन के प्रभाव से दूर रहते हैं। [५२-६३]
भाई प्रकर्ष ! तू यह मत समझ लेना कि मैंने तुझे जिन छः पूरों के नाम बताये हैं इतने ही पुर इस भवचक्र में है। इस उपलक्षण (आधार) से मिथ्यादर्शन के वशीभूत * कई अन्य पुर भी इस भवचक्र में हैं, ऐसा समझना । ऐसे-ऐसे तो यहाँ अनेक पुर हैं। वत्स ! भूतल पर इस प्रकार जो पुर हैं वैसे ही देश और काल के अनसार दूसरे भी अनेक पुर थे और नये अनेक पुर बस रहे हैं और बसते ही रहेंगे। इस अप्रमत्तत्व शिखर पर स्थित जैनदर्शनपुर अनादि-अनन्त है, यह न कभी उत्पन्न हुआ और न कभी इसका नाश होगा, अर्थात् परमार्थ से यह सर्वकाल शाश्वत है।
[६४-६६] प्रकर्ष-मामा ! इन लोगों ने अपनी-अपनी कल्पना से अपने नगरनिवासियों के लिए निर्वृत्तिनगर के जिन मार्गों को बताया है उन्हें जानने की मैं
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