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________________ प्रस्ताव ४ : सात पिशाचिनें ५८५ से यह प्राणियों को बल, ऊर्जा और मनोहारी आकार| स्वरूप देता है। * फिर यह यौवन प्राणी . अनेक प्रकार की विलास लीलायें करवाता है । हँसाता है, चस्के भराता है, उल्टे सीधे विचार करवाता है, विपरीत पराक्रम दिखलाता है, कूद फांद करवाता है, नचाता है, उल्लसित करता है दौड़ाता है और इन सब कार्यों में अपना मद दिखाता है। अभिमान करवाता है, पराक्रम करवाता है, विदूषकपना दिखलाता है, हँसी-ठट्टा करवाता है, साहस करवाता है और औद्धत्यपूर्ण कार्य करवाता हैं । ऐसे कार्यकर्ता योद्धानों को अपने साथ लाकर यौवन ससार को लीला पूर्वक नचाता है। भवचक्र के निवासी लोग भी ऐसे विचित्र हैं कि जब वे यौवन के सम्पर्क प्रभाव में आते हैं तब भोग-संभोग के सुखों को प्राप्त कर वे अपने को सौभाग्यशाली समझ बैठते हैं। कालपरिणति महादेवी द्वारा भेजा हुआ यह योगी थोड़े दिनों तक तो अपने वीर्य से इसी तरह लोगों को नचाता रहता है । यह साक्षात् पिशाचिनी जरा कुपित होकर हाथ में तलवार लेकर यौवन और उसके परिवार को अपनी शक्ति से चूर-चूर कर देती है, उनके टुकड़े-टुकड़े कर देती है और उसे निर्वीर्य कर देती है। वत्स ! इस स्थिति के प्राने पर लोगों का यौवन समाप्त होकर बुढ़ापा आ जाता है तब वे बेचारे हजारों दुःखों में पड़ जाते हैं। रंक जैसे अत्यन्त दीन-हीन हो जाते हैं। उनकी अपनी स्त्रियाँ ही उन्हें धिक्कारती हैं। उनके कुटुम्बीजन भी उनका तिस्कार करते हैं। उनके बच्चे भी उनकी हंसी उड़ाते हैं । युवती स्त्रियाँ तो उनकी ओर तिरस्कृत दृष्टि से देखती हैं। जराक्रान्त वे अपने यौवन में भोगे हुए भोगों को बार-बार खेद पूर्वक याद करते हुए हाथ मलते रहते हैं। बार-बार उबासी खाते हुए टूटी-फूटी खटिया पर पड़े-पड़े लौटते रहते हैं। उनके नाक में से श्लेष्म निकलता रहता है। वे बात बात में लोगों पर गरम होते रहते हैं । अपना आपा खोते तो उन्हें समय ही नहीं लगता। अन्य द्वारा अनादर प्राप्त कर वे पग-पग पर क्रोधित होते हैं और जरा द्वारा पराभव प्राप्त गतिहीन प्राणी दिन-रात सोते रहते है। भाई प्रकर्ष ! लोगों को पीड़ा प्रदान करने में तत्पर रहने वाली जरा पिशाचिनी का वर्णन संक्षेप में कर दिया, अब मैं राक्षसी के समान रौद्र दिखने वाली रुजा का वर्णन करता हूँ। [१३६-१४६] २. रुजा __ दूसरी स्त्री रुजा (व्याधि, बीमारी) नामक भयंकर पिशाचिन है। देख, यह जरा के दांये बाजू बैठी है । सात राजाओं के वर्णन के समय पहले मैंने वेदनीय राजा का वर्णन किया था, शायद तुझे याद होगा। उसी समय मैंने उसके साथ बैठे हए असाता नामक उसके एक मित्र का भी वर्णन किया था। इस दुरात्मा की प्रेरणा से ही यह व्याधि यहाँ आई है । यद्यपि कुछ प्राचार्य इस व्याधि को प्रेरित करने वाले कुछ बाह्य निमित्तों को भी मानते हैं, जैसे बुद्धि, धैर्य और स्मरण शक्ति के नाश से व्याधि पाती है, समय के परिपक्व होने और अशुभ कर्म फल के योग (उदय) से * पृष्ठ ४२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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