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________________ प्रस्ताव ४ : रिपुकम्पन ५५३ में तो परमार्थ से हैं ही। क्योंकि, ये योगी के समान इच्छानुसार रूप धारण कर सकते हैं। प्रकर्ष - मामा ! अभी ये कहाँ जा रहे हैं ? विमर्श - भद्र ! सुनो, तूने बाहर के उद्यान में रिपुकम्पन को देखा था, उसके बड़े भाई लोलाक्ष की मृत्यु होने से उसका राज्याभिषेक हुआ है और वह ललितपुर का राजा बना है । यह रिपुकम्पन राजा का राजमहल है। किसी बहाने यह मिथ्याभिमान राजभवन में प्रवेश करना चाहता है, ऐसा लग रहा है। प्रकर्ष -- मामा ! इस राजा का राजभवन मुझे भी बताइये न ? विमर्श-प्रच्छा, चलो। दोनों रिपुकम्पन के राजमहल में प्रविष्ट हुए । हर्ष और शोक का प्रभाव : पुत्र जन्मोत्सव इधर रिपुकम्पन राजा के मतिकलिता नामक एक दूसरी रानी भी थी। जिस समय मामा-भारणजे महल में प्रविष्ट हुए उसी समय इस रानी ने एक बालक को जन्म दिया। जैसे सूर्य के उदय से तामरस कमल विकसित होते हैं और आकाश में से अंधकार नष्ट हो जाता है, सुन्दरजनों के नयन जैसे नींद उड़ जाने पर शोभायमान होते हैं अथवा स्वधर्म-कर्म में तत्पर सुन्दर गृहस्थ का घर हो वैसे सारा राजमहल पुत्र जन्म की खुशी में शोभायमान होने लगा। चारों ओर आनन्द ही आनन्द छा गया । मरिणयों के दीपक जगमगाने लगे । मंगल समय में टांकी जाने वाली दर्पणों की मालाये चारों तरफ टांकी जाने लगो। * अनेक प्रकार के रक्षा विधान निष्पन्न किये गये। सफेद सरसों से नन्दावर्त की सैकडों रेखायें बनाकर स्वस्तिक बनाये गये। विलासिनी स्त्रियों के हाथ में श्वेत चंवर देकर उन्हें स्थान-स्थान पर खड़ा किया गया । प्रियंवदा नामक दासी सभास्थल में बैठे हुए महाराजा को पुत्र जन्म की बधाई देने वेग से चल पड़ी। वह दासी शीघ्रता में पाँव पटकती हुई तेजी से चल रही थी। पांवों में पहिने हुए झांझर के कारण कभी-कभी उसकी गति स्खलित हो जाती थो। चरणों की तेज चाल से उसके स्तन ऊंचे-नीचे हो रहे थे। स्तन-कम्पन के कारण उसके नितम्ब भी हिल रहे थे। नित बों के हिलने से कटिमेखला के घुघरुओं की रण-रणक आवाज हो रही थी। कटिमेखला के हि ने से उरोजों पर डाला हा दुपट्टा नीचे खिसक रहा था । दुपट्टे के खिसकने से उसके मुह पर लज्जा की लालिमा छा रही थी । मुख की लालिमा से उसके मुखचन्द्र का प्रकाश भूवन में चारों तरफ फैल रहा था। नितम्बों और स्तनों के भार से वह दासी भूकी जा रही थी जिससे उसकी चाल मन्द हो रही थी, फिर भो आनन्द के आवेश में वह तेजी से दौड़ती हुई आगे बढ़ * पृष्ठ ४०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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