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________________ प्रस्ताव ४ : वसन्तराज और लोलाक्ष ५४१ उद्यान के कुछ भाग झांझर झंकारतो, कटिमेखला के घधरुओं को गुंजरित करती, मोटे नितम्ब-भार के कारण मन्दगति वालो, वृक्ष के पुष्पों को चूटने की प्रभिलाषा से आगत विलासिनी स्त्रियों के समुदाय से शोभित हो रहे हैं और उनके पुरुष उनके साथ केलि-क्रीडा में प्रानन्द-विभोर हो रहे हैं। मामा ! कहीं हाथियों के कुम्भस्थल का भ्रम पैदा करने वाली उन्नत उरोजों वाली स्त्रियाँ वृक्षों पर झूला झलती हुई वृक्षों को ऐसे कम्पित कर रही हैं मानो उनके स्तनों को छकर वृक्षों में भी कामदेव प्रवेश कर गया हो जिससे वे प्रकम्पित हो रहे हों। किसी वन-विभाग में हो रही रास-लीला का कौतुक मन को आकर्षित कर रहा है, तो किसी वन के एकान्त स्थान में स्त्री-पुरुष युगल परस्पर चिपक कर बैठे हैं। कोईकोई वन प्रदेश विलासिनी तरुणी स्त्रियों के रक्ताभ मुख कमल-वनखण्डों से भी अधिक शोभायमान हो रहे हैं अर्थात् युवती स्त्रियों के ललाई लिये हुए मुख व मलसमूह सच्चे कमल वन का आभास कर रहे हैं। [१-३] विमर्श भाई प्रकर्ष ! तू ने बहुत ध्यान से देखा, प्राशा है इससे तेरा कौतूहल शान्त हुया होगा। अन्य सब वन प्रदेश भी ऐसे ही हैं, इसीलिये मैंने कहा था कि तुझे योग्य समय पर ही भवचक्र नगर देखने का कौतूहल हुआ है। इसी वसन्त ऋतु के समय ही यह नगर उत्कृष्ट सौन्दर्य को प्राप्त करता है । भद्र ! तूने नगर के बाहर के भाग तो देख ही लिये, चलो, अब हम नगर के अन्दर प्रवेश करें। नगर की शोभा कैसी है, यह देख लेने पर तेरे मन का कौतुक/मनोरथ पूर्ण हो जायगा। प्रकर्ष-मामा ! बाह्य प्रदेश में रहने वाले इन लोगों का वसन्त-विलास तो वास्तव में दर्शनीय ही है । नगर का यह बाह्य भाग अत्यन्त रमणीय है। मैं रास्ते में चलते-चलते थक भी गया हूँ, इसलिये मुझ पर कृपा कर आप थोड़ी देर और यहाँ ठहरिये । कुछ समय बाद हम नगर में प्रवेश करेंगे। विमर्श-ठीक है । जैसी तुम्हारी इच्छा । भवचक्र के कौतुक मामा भाणेज बात कर ही रहे थे क उन्होंने एक अदभूत बात देखी। उसी समय राज्यवर्ग और नगर-निवासियों से परिवेष्टित राजा अपनी सैन्य-सज्जा के साथ वसन्त की शोभा निहारने उधर से आता दिखाई दिया। उसके रथों की गड़गड़ाहट और हाथियों का समह घन-गर्जन का विभ्रम पैदा कर रहे थे। तीक्ष्ण शस्त्रों की चकाचौंध करने वाली चमक बिजली जैसी लग रही थी । चलते हुए तेजस्वी श्वेत अश्व बड़े बगुलों के समूह जैसे लग रहे थे। हाथियों के मद रूपी जल के झरने से वे मनोहर लग रहे थे। हर्ष के आवेग में झूमकर चलते हुए जनसमूह से परिवेष्टित, सुन्दरियों के मन में महान उन्माद पैदा करने वाला मन्मथरूपधारक वह राजा कामदेव जैसा लग रहा था । मानो महामेघ अपने भाई वसन्त को शोभा * पृष्ठ ३६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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