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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा लोध्र वृक्षों की वल्लरियां विकसित होकर मानों हँस रही हैं। तिलक वन विकसित होती कलियों और मञ्जरियों से शोभित हो रहा है। शिशिर के हिम-कणों से सारे कमल जल गये हैं जिससे सिर्फ उनके डंठल दिखाई दे रहे हैं। बड़े-बड़े वृक्षों के जंगल किशलय विलास (नये पत्तों) से सुशोभित हो रहे हैं। यात्रियों के शरीर अति शीतल पवन से कांप रहे हैं। यह सब देखकर मोगरा चालाक मनुष्य की भांति आनन्द से परिहास कर रहा है। [१] विदेश गये हए मर्ख पति शिशिर में अपनी प्रिय सुन्दरियों की विरहवेदना से व्याकुल हो रहे हैं। शीत पवन से बार-बार प्रति क्षण इतने सर्द हो जाते हैं, मानों अभी-अभी अपने प्राण त्याग कर रहे हों । [२ मामा ! देखिये, अब सूर्य उत्तरायण में चला गया है जिससे दिन क्रमशः बड़ा होने लगा है। रातें थोड़ी-थोड़ी छोटी होती हुई, हर रात पहले की रात्रि से कुछ छोटी होने लगी हैं। [३] जिस घर में मोटे-मोटे गद्दे हों, प्रोढने के लिये हरिण के रोगों से बने मुलायम कम्बल हों, अगर और धूप से वातावरण गमक रहा हो, ऐसे घर में भी इस शिशिर ऋतु में मोह-परवश प्राणी को पुष्ट शरीर वाली ललना के विरह में किञ्चित् भी सुख प्राप्त नहीं होता । [४] सूर्य का तेज और महत्व पहले से बढ गया है, क्योंकि सूर्य ने दक्षिण दिशा से सम्बन्ध त्याग कर दिया है। ठीक ही तो है, जिसने दक्षिणाशा (दक्षिणा की प्राशा) को त्याग दिया हो वह क्षीरण प्रताप/लघुता कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसे किस बात की ग्लानि हो सकती है ? अर्थात् उसका तो गौरव एवं महत्व पहिले से बढेगा ही। [५] . देखिये मामा ! (परदेश में काम करने वाले) ये दुःसेवक (कुभृत्य) ठंड से घबरा कर अपने स्वामी के विशिष्ट कामों को बीच में ही छोड़कर अपनी प्रिय पत्नी के उन्नत उरोजों की गर्मी को प्राप्त करने की आशा से स्वदेश लौट रहे है। [६] मामा ! देखिये, गरीब, वृद्धावस्था से जीर्ण, वात रोग से पीड़ित शरीर वाले, कन्था (ओढने बिछौने) के अभाव वाले यात्री ठंड से घबरा कर कह रहे हैं कि यह शीतकाल कब बोतेगा ? [७] मामा ! देखिये, घोड़े आदि पशुओं को खिलाने के लिये जौ की कटाई होने लगी है। अत्यधिक ठंड से बहुत प्राणी कंपकंपा रहे हैं। दुःखी-दरिद्री लोगों के बच्चे शीत की पीड़ा से रो रहे हैं। केवल सियार ही इस ऋतु में प्रानन्द पूर्ण आवाजें कर रहे हैं । [८] मोटे-मोटे गन्नों को पेरने की धारिणय चालू हो गई हैं । सरोवर हिम से अत्यधिक ठंडे हो गये हैं। फिर भी महामोह के प्रधान मिथ्यादर्शन के निर्देश से * पृष्ठ ३८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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