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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
देना है, जब कि भिन्न-भिन्न अध्याय अलग-अलग विषयों का ज्ञान देने वाले होते हैं (कार्य की अपेक्षा से भिन्नता)। भिन्न-भिन्न अध्ययन शास्त्र के अंग हैं और उन अध्ययनों को धारण करने वाला शास्त्र है। [५५४-५५७]
भाई प्रकर्ष ! इस प्रकार नाम, संख्या आदि भेदों को ध्यान में रखकर देश, काल और स्वभाव से राजा और उनके परिवारों में सामान्य रूप से जो अभिन्नता है, उसे थोड़े समय के लिए एक तरफ रखकर, उन सात राजाओं और उनके परिवारों के नाम और गुणों को तुझे समझाने के लिये अलग-अलग बताये हैं । यद्यपि इन राजाओं और उनके परिवारों में सामान्य और विशेष की भिन्नता अवश्य है, फिर भी वे अभिन्न हैं (जैसे शास्त्र और उसके अध्ययन)। इसीलिये वे एक ही समय में एक दूसरे से अलग-अलग दिखाई नहीं देते । इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है अतः तुम संशय का त्याग कर दो । साथ ही अन्य कहीं भी यदि मैंने सामान्य और विशेष की अपेक्षा से भिन्नता बताई हो तो उनके नाम, संख्या, लक्षण, कार्य मादि को समझ कर तुझे आश्चर्य नहीं करना चाहिये । [५५८-५६१)
१६. महामोह-सैन्य के विजेता
[विमर्श से उक्त स्पष्टीकरण सुनकर सामान्य और विशेष को समझ कर, न्यायसूत्रों और दृष्टान्तों से उसे हृदयंगम कर जिज्ञासु प्रकर्ष ने अपना प्रश्न आगे चलाया ।
मामा ! आपके स्पष्टीकरण से मेरे मन की शंका दूर हुई, पर अब एक नयी शंका मन में उठ खड़ी हुई है।
___मामा ! यहाँ जो ये सात राजा दिखाई देते हैं, उनमें से तीसरा वेदनीय, चौथा आयुष्य, पाँचवां नाम और छठा गोत्र ये चारों महीपति आपके कथनानुसार प्राणी को कभी-कभी सुख और कभी-कभी दुःख देते हैं। निष्कर्ष यह है कि ये चारों बाह्य जगत के प्राणियों के लिये अपकार-परायण (एकान्त रूप से दुःखदाता) ही नहीं हैं पर कभी-कभी सुख के कारण भी बनते हैं। परन्तु प्रथम ज्ञानावरण, द्वितीय दर्शनावरण और अन्तिम अन्तराय ये तीनों तो प्राणियों को निश्चित रूप से सर्वदा दुःख देने वाले ही हैं। अपने शक्तिशाली परिवार के साथ महामोह महाराजा और उपरोक्त तोन राजा मिलकर प्राणी के जीवन के सारभूत ज्ञानादि गुणों का हरण कर लेते हैं, तो फिर प्राणियों का जीवन ही कहाँ रहा ? मामा! तो क्या बाह्य प्रदेश में कोई ऐसे शरीरधारी प्रारणो भी होंगे जो इन चार शक्तिशाली शत्रुओं से तनिक भी कथित (पीड़ित) न होते हों? * क्या ऐसे प्राणी बाह्य जगत में होंगे या ऐसे प्राणियों के होने * पृष्ट ३८१
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