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________________ प्रस्ताव ४ : वेल्लहल कुमार कथा ४६३ फके हए पदार्थों को फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । यद्यपि शब्द आदि पाँच इन्द्रियों के भोग के सभी स्थूल पदार्थ पुद्गल परमाणुओं से बने हुए हैं, प्रत्येक प्राणी इन्हीं परमाणुओं का उपभोग करता है, पूर्व के अनन्त भवों में इस प्राणी ने प्रत्येक परमाणुओं को अनन्त बार प्राप्त कर उपभोग कर छोड़ दिया है, अत: ये सब शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के जितने भी पदार्थ हैं और, हे पवित्र बहिन ! इस जगत् में प्रेमानुबन्ध पूर्वक आकर्षणकारी जितने भी पदार्थ इस संसार में हैं वे सब उन्हीं परमाणुनों के बने हुए होने से भोग कर फेंके हुए यानि वमन किये हुए पदार्थ के समान हैं तथापि यह पापात्मा जीव उन्हें पुनः प्राप्त कर आसक्ति पूर्वक सेवन करता है और वमन के कीचड़ में लोटता है। प्राणी के ऐसे निर्लज्ज व्यवहार को निर्मल आत्मा वाले प्रात्मार्थी वैद्य देखते हैं, उसे रोकते हैं, फिर भी उसे लज्जा नहीं आती। उसकी ऐसी शोचनीय एवं लज्जनीय स्थिति में भी पूतात्मा धर्माचार्य कृपापरायण होकर भोग रूपी कीचड़ में फंसे हुए ऐसे प्राणियों को प्रयत्न पूर्वक बार-बार रोकते हैं और समझाते हैं। हे भद्र ! तुम स्वयं अनन्त ज्ञान, अनन्त दशन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य स्वरूप हो । तुम्हारे भीतर अवर्णनीय आत्मिक आनन्द है । तुम देव स्वरूप हो । तुम्हें ऐसे भोग के दलदल में फंसकर आत्मिक गौरव को क्षय करना शोभा नहीं देता। एक बार भोगे हुए पदार्थ फिर दूसरा रूप धारण कर तुम्हारे समक्ष आते हैं, अतः ऐसे वमन किये हए पदार्थों पर अपने मन को अनुबन्धित करना तुम्हारे जैसों के लिये अत्यन्त ही हीन कार्य है । वस्तु-तत्त्व को यथार्थ रूप में समझने वाले तत्त्वज्ञ महात्मा इन पदार्थों को वमन किये हुए अपवित्र पदार्थ के समान मानते हैं । तुम तो स्वयं परम देव हो, फिर भी तुम ऐसे अपवित्र पदार्थों को भोग करो यह तनिक भी उचित नहीं है। इन पदार्थों को प्राप्त करने में भी दुःख होता है । तत्त्वतः ये पदार्थ भी महादुःख रूप हैं और भविष्य में भी उनके वियोग से दुःख होने वाला है । अतः विवेकशील प्राणियों को इनका पूर्ण त्याग कर देना चाहिये । अपने आत्म-स्वरूप को समझने वाला कौन ऐसा भला मनुष्य होगा जो बाह्य परमाणुओं से निर्मित तुच्छ और आत्मिक-भाव रहित इन पदार्थों पर आसक्त होगा ? अर्थात् आत्म-धन वाले विशिष्ट प्राणियों के लिये ऐसे तुच्छ पदार्थ क्या कभी आसक्ति के योग्य हो सकते है ? अतः हे भद्र ! मेरे कहने से भोग-पदार्थों में और प्रमाद के विषय में पड़ना अब तुम्हारे योग्य नहीं है अतः अब तुम इस दलदल में मत फंसो। [१०१-११५] अविद्याशरीर की संघटना हे पद्मपत्रलोचने ! गुरु महाराज जब प्राणी को न्याय और तर्कपूर्ण शब्दों में उपदेश देकर विषय-भोग भोगने से रोकते हैं तब प्रमाद-भोजन में अत्यन्त लोलुप बना हुआ प्राणी सोचता है कि, अहो ! यह धमाचार्य तो पूर्णतया मूर्ख हैं। ये तो वस्तुतत्त्व को समझते ही नहीं, ऐसे आनन्द देने वाले भोग-पदार्थों की निन्दा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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