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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा होने से वार्ता का आनन्द बढ़ जाता है । प्रस्तुत प्रसंग में यथावस्थित वस्तुतत्त्व के अन्तरंग रहस्य को तो तू मेरे साथ चर्चा करके ही बराबर समझ सकता है, मात्र सुनने से वस्तु का प्रान्तरिक स्वरूप समझ में नहीं श्रा सकता । भाई ! इसका रहस्य तुझे यत्नपूर्वक समझना चाहिये, अन्यथा वस्तुतत्त्व से अज्ञात भौताचार्य की कथा के समान बात हो जायेगी । [ ७२-७७ ] प्रकर्ष - मामा ! यह भौताचार्य की कथा कौनसी है ? कहो । ४८० भौताचार्य की कथा विमर्श - भद्र ! सुन, किसी नगर में जन्म से बधिर सदाशिव नामक भौताचार्य शिवभक्त) रहते थे। अधिक वृद्ध होने पर जब वे जीर्ण-शीर्ण दिखाई देने लगे, तब एक उपहास प्रिय धर्त छात्र ने हाथ के इशारे से उन्हें बुलाकर उनसे कहागुरुदेव नीतिशास्त्र में कहा है कि विषं गोष्ठो दरिद्रस्य, जन्तोः पापरतिर्विषम् । विषं परे रता भार्या, विषं व्याधिरुपेक्षितः ॥ दरिद्र से गोष्ठी करना विष के समान है, पाप के प्रति प्रेम रखना विष के समान है, अपनी स्त्री की परपुरुष में श्रासक्ति विष के समान है और व्याधि की उपेक्षा करना भी विष के समान ही है । हे भट्टारक ! आपको बधिरपन का उपचार शीघ्र ही करवाना चाहिये । इस महाव्याधि की उपेक्षा करना ठीक नहीं है । अपने विद्यार्थी की बात सुनकर भौताचार्य ने भी निश्चय किया कि किसी प्रकार इस बहरापन (रोग) को मिटाना चाहिये । प्राचार्य ने अपने शिष्य शान्तिशिव को बुलाकर कहा - शान्ति ! तू वैद्य के घर जाकर, उसे मेरे बहरेपन का सब वृत्तान्त कह कर वह जो प्रौषधि - चूर्णं बतावे वह लेकर शीघ्र श्रा । अब अधिक समय तक उपेक्षा कर इस रोग को बढ़ने नहीं देना चाहिये । प्राचार्य की आज्ञानुसार शान्तिशिव वैद्य के घर गया । जिस समय वह वैद्य के घर पहुँचा, उसी समय वैद्य का लड़का इधरउधर भटक कर घर आया था । लड़के को देखते ही वैद्य ने क्रोधान्ध होकर लड़के को प्रति कठोर मूंज के मोटे रस्से से खम्भे के साथ बाँध दिया । लड़का चिल्लाचिल्लाकर रोने लगा तो वैद्य अधिक क्रोधित होकर निर्दयता पूर्वक उसे लकड़ी से मारने लगा । शान्तिशिव दूर से देख रहा था, जब उसने बुरी तरह लड़के को पिटते हुए देखा तब उसे दया आ गई और उसने वैद्य से पूछ ही लिया, अरे वैद्यराज ! प्राप इस लड़के को इतना अधिक क्यों मार रहे हैं ? उत्तर में वैद्य बोला - अरे, यह पापी बिल्कुल सुनता ही नहीं हैं । इतने में ही वैद्य की स्त्री लड़के को मार से बचाने के लिये हाहाकार करती हुई बीच में खड़ी हुई । तब वैद्य अधिक क्रोधित होकर कहने लगा- ' 'तू दूर हट जा, अन्यथा पृष्ठ ३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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