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________________ प्रस्ताव ४ : चित्तवृत्ति प्रटवी ४७३ तामसचित्त नगर में राजा-रानी की अनुपस्थिति का कारण बताने के बाद शोक ने अपना उस नगर में आने का कारण विमर्श और प्रकर्ष को सुनाया --- विमर्श - हाँ भाई ! आपका यहाँ आना कैसे हुआ ? यह बताएँ । शोक - इस नगर में मेरा एक प्राणों से भी अधिक प्रिय अन्तरंग मित्र मतिमोह नामक महाबलवान अधिकारी है । हे भद्र ! इसीलिये महाराज की शक्तिशाली सेना को संसार के बीहड़ जंगल में छोड़कर मैं उससे मिलने यहाँ प्राया हूँ । [१२] विमर्श - क्या यह मतिमोह आपके स्वामी के साथ युद्ध में नहीं गया ? शोक - महाराज ने उसे इस नगर में ही रहने का निर्देश दिया था । युद्ध में जाते समय महाराजा ने उससे कहा था कि, हे मतिमोह ! तुम्हें इस नगर के बाहर कभी नहीं जाना चाहिये, क्योंकि इस नगर की रक्षा करने में तुम ही सामर्थ्यवान हो । महाराजा द्वेषगजेन्द्र की आज्ञा को स्वीकार कर मतिमोह यहीं रहा है । मेरे यहाँ श्राने का कारण तुम्हें बता चुका, अब मैं उससे मिलने के लिये नगर में प्रवेश कर रहा हूँ । [३–५] विमर्श बहुत अच्छा, आपको अपने कार्य में सफलता प्राप्त हो । शोक प्रसन्न होकर तामसचित्त नगर में चला गया । अब विमर्श ने प्रकर्ष से कहा - भाई ! अभी शोक के कथनानुसार महामोह आदि विशाल सेना के साथ संसार के बीहड़ जंगल में ही हैं, अतः हम को भी इस जंगल में जाकर रागकेसरी राजा और उसके मंत्री विषयाभिलाष से मिलना चाहिये । प्रकर्ष - मामा ! दूसरा मार्ग ही क्या है ? अटवी में ही चलें । तदनन्तर दोनों मामा-भारणजे तत्काल ही उस बीहड़ अटवी की तरफ चल पड़े । [ ६-८ ] ६. चित्तवृत्ति अटवी विमर्श और प्रकर्ष अपना कार्य शीघ्रता से निपटाने के लिये पवन वेग से प्रवास करते हुए थोड़े ही समय में चित्तवृत्ति नामक श्रटवी के मध्य में पहुँच गये । [६] महामोह-दर्शन इस बीहड़ अटवी में एक महानदी के तट पर मनोहर विशाल मण्डप के मध्य में निर्मित मंच / वेदिका के ऊपर महासिंहासन पर विराजमान महामोह, रागकेसरी और द्वेषगजेन्द्र को अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनात्रों से घिरे हुए देखा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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