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________________ प्रस्ताव ४ : रिपुदाररण और शैलराज ४१५ लोग गुणों में मेरे से अधम हैं, हीन हैं । अन्य कोई मेरा गुरु कैसे हो सकता है ? मुझ इतने अधिक गुण हैं कि उन गुणों के प्रताप से मैं स्वयं ही गुरु हूँ । मुझे तो देवताओं में भी कोई ऐसा दिखाई नहीं देता जिसमें मुझ से भी अधिक गुण हों ! हे अगृहीतसंकेता ! उस समय मैं इतना अभिमानाभीभूत हो गया था कि मैं प्रस्तर-स्तम्भ के समान सर्वदा हें कड़ी में ही रहता और किसी को नमन भी नहीं करता था । हे भद्रे ! मेरा अहंकार इतना बढ़ गया कि मस्त सामन्त राजानों के नमन करने से उनके मुकुटकिरणों से जिनके चरण कमल सुशोभित हो रहे थे ऐसे मेरे पिताश्री के चरणों में भ मैं कभी नमन हेतु झुका नहीं । समग्र मनुष्यों द्वारा वन्दनीया, मेरे प्रति अत्यधिक वात्सल्य रखने वाली प्रेममूर्ति माता को भी मैं कभी नमस्कार नहीं करता था । इतना ही नहीं, अपने कुलदेवता और लौकिक देवों की तरफ भी मैं कभी नमस्कार करने की इच्छा से नहीं देखता । अर्थात् उनकी और कभी दृष्टिपात भी नहीं करता था । [४१-४६] अभिमान- पोषरण मेरे पिता नरवाहन ने मेरे व्यवहार से यह जान लिया कि शैलराज के साथ मेरी प्रगाढ मैत्री हुई है और वह प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । उन्होंने अपने मन में सोचा कि, 'मेरा पुत्र घमंड से अपने को ईश्वर जैसा मानता है, अतः लोग यदि उसकी आज्ञा का कदाचित् उल्लंघन करेंगे तो उसके मन में अत्यन्त विक्षोभ उत्पन्न होगा और स्वयं को अपमानित मानकर मुझे छोड़कर वह कहीं अन्यत्र चला जायेगा । यदि ऐसा हो गया तो बहुत बुरा होगा । अतः मेरे अधीनस्थ सभी राजानों और सामन्तों को कुमार के इस व्यवहार के संवाद भेज दूं और उनको निर्देश दे दूं कि वे सभी कुमार की आज्ञा का अवश्यमेब पालन करें ।' मेरे पिता का मेरे प्रति अगाध प्रेम था । इसलिए उन्होंने उक्त बात सोची और तदनुसार प्रदेश प्रसारित कर दिया । यद्यपि मैं छोटा बालक था तदपि मेरे पिता की आज्ञानुसार सभी राजा मेरे सन्मुख नत मस्तक होकर ऐसा व्यवहार करने लगे कि जैसे वे सब मेरे सेवक हों ! बड़े-बड़े उच्च कुलोत्पन्न राजा और पराक्रमी बलवान पुरुष भी देव ! देव ! खमा !! खमा !! कह कर मेरी अनेक प्रकार से सेवा करने लगे । मेरे मुख से शब्द निकलने के पहले ही समस्त राजलोक ससन्मान जय देव ! जय देव !! कहकर वे मेरी आज्ञा को शिर झुकाकर स्वीकार करने लगे । हे श्रगृहीतसंकेता ! तुझे कितना सुनाऊँ ? संक्षेप में, मेरे पिता-माता, बन्धु, सम्बन्धी श्रौर नौकर आदि सभी समस्त कार्यों में मेरे साथ ऐसा व्यवहार करने लगे कि जैसे मैं परमात्मा से भी बड़ा होऊँ । वास्तव में तो मेरे इस सन्मान का यथार्थ कारण मेरा मित्र पुण्योदय था परन्तु, प्रत्यन्त मोहजनित दोष के कारण मैं तो मन में उस समय यही विचार करता था कि अहा ! देवताओं को भी श्रप्राप्य मेरा जो प्रताप अभी सर्वत्र फैल रहा है उसका कारण मेरा परम प्रिय इष्ट मित्र शैलराज है और यह सब प्रताप मेरे उसी प्यारे मित्र का ही है । [४७-५७] * पृष्ठ ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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