SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ४ : रिपुदारण और शैलराज तुझे याद ही होगा)। यही धाय माता मुझे अपना दूध पिलाने और मेरा पालनपोषण करने के लिये यहाँ भी आई। इधर संयोग ऐसा हुआ कि एक बार इस अविवेकिता धात्री का उसके प्रिय पतिद्वषगजेन्द्र से मिलन संयोग हुआ और दैवयोग से जिस समय विमलमालती के गर्भ में मैं आया उसी समय अविवेकिता ने भी गर्भ धारण किया। संयोग से जिस दिन मेरा जन्म हुआ उसी दिन अविवेकिता ने भी * एक महादुष्ट बालक को जन्म दिया। इस बालक की छाती बाहर निकली हुई और कुछ ऊंची उठी हई थी तथा उसके पाठ मुह थे जिसे देखकर वह विशालाक्षी अविवेकिता बहुत प्रसन्न हुई । फिर वह अविवेकिता धात्री हर्ष पूर्वक अन्तर्मन में विचार करने लगी कि, अहा ! मेरे पुत्र के तो श्रेष्ठ पर्वत के भिन्न-भिन्न शिखरों के समान आठ मुह हैं, यह तो बहुत ही आश्चर्यजनक बात है। बालक के जन्म के एक माह पश्चात् अविवेकिता ने भी अपने पुत्र का नाम उसके गुणों के अनुसार शैलराज रखा। [१२-१८] शैलराज के साथ मित्रता यह अविवेकिता धात्रो और शैलराज दोनों ही मेरे अन्तःकारण में तो अनादि काल से रहते पा रहे थे, परन्तु अभी तक वे गुप्त रूप से रहते थे इसलिये मुझे उनका पता नहीं था। [१६] मेरा सुख पूर्वक लालन-पालन हो रहा था और मैं बालोचित क्रीडाओं से माता-पिता को आनन्दित करता हुआ बढ रहा था। मेरे साथ ही साथ शैलराज भी पालित-पोषित होता हुआ बढ़ने लगा । [२०] मेरी ५-६ वर्ष की उम्र हुई तब क्रीडा करते हुए एकबार मैंने ध्यान पूर्वक और समझ पूर्वक शैलराज को देखा । अनादि काल से उस पर मेरा अत्यधिक स्नेह और मोह था जिससे उसे देखते ही मेरे मन में उसके प्रति इतनी अधिक प्रीति उत्पन्न हुई कि जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता । मैं उसकी ओर बहुत प्रेम से देख रहा हूँ यह जानकर वह दुष्टात्मा बालक अपने मन में लक्ष्य पूर्वक सोचने लगा कि, यह राजकुमार मेरी और स्निग्ध नेत्रों से देख रहा है, इससे लगता है कि अवश्य ही यह मेरे वशीभूत हो गया है । इससे वह भी बहुत आश्चर्य चकित हुआ और उसे भी मेरे प्रति बहुत प्रेम है, ऐसा दिखावा करते हुए वह माया पूर्वक मुझ से गले लगकर मिला। अत्यन्त मोह के कारण उस समय मेरे मन पर भी ऐसी छाप पड़ी कि, अहा ! इस शैलराज में सामने वाले प्राणी के मन के भावों को समझने की जैसी शक्ति है वैसी इस दुनिया में किसी में नहीं है। मैंने अपने मन में निश्चय किया कि जब ऐसा प्रेमी, विचक्षण और भला लड़का मेरा मित्र बनना चाहता है और मेरे प्रति इतना आकर्षित है तब मुझे भी उसे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ना चाहिये, अर्थात् उसके साथ मित्रता गांठ लेनी चाहिए । इस निर्णय के पश्चात् मैं प्रतिदिन उसके साथ उद्यानों में तथा क्रीड़ा-स्थलों में खेलने लगा। इस प्रकार प्रसन्नता * पृष्ठ २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy