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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अरिदमन-भगवन् ! तो क्या यह नन्दिवर्धन अभव्य है ?
विवेकाचार्य राजन् ! यह अभव्य नहीं है किन्तु भव्य है। वह मेरे वचनों पर प्रतीति नहीं करता और उन पर प्राचरण नहीं करता, यह तो उसके मित्र वैश्वानर (क्रोध) का दोष है । इस वैश्वानर का इसके साथ अनन्त काल का अनुबन्ध (सम्बन्ध) होने से इसका तीसरा नाम अनन्तानुबन्धी भी कहा गया है । यह अनन्तानुबन्धी क्रोध अभी इसमें जागृत है और उस पर इसकी बहुत प्रीति है, इसीलिये मेरे वचनों से इसको लेशमात्र भी सुख-शान्ति नहीं मिलती, अपितु इसके हृदय में अप्रीति और दुःख उत्पन्न करते हैं। ऐसे संयोगों में इस बेचारे तपस्वी को प्रतिबोध कैसे हो सकता है ? इस वैश्वानर की संगति के परिणाम स्वरूप यह नन्दिवर्धन अभी भिन्नभिन्न स्थानों में भटकता रहेगा, जहाँ यह अनेक प्रकार की वैर-परम्परा बाँधेगा और अनन्त काल तक विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हुए उनके दारुण फलों को भोगता रहेगा।
अरिदमन-भगवन् ! तब तो यह वैश्वानर इसका सचमुच में ही महान् शत्रु है ।*
विवेकाचार्य-इसने तो शत्रता की सीमा भी लांघ दी है। इससे अधिक कोई किसी का क्या बुरा करेगा ? - अरिदमन-भगवन् ! क्या यह वैश्वानर इस नन्दिवर्धन का मित्र बन कर इसके साथ ही रह रहा है ? या अन्य किसी प्राणी का मित्र बनकर उसके साथ भी रहता है ?
विवेकाचार्य-राजन् ! यदि आप यह प्रश्न स्पष्टतया पूछ रहे हैं तो मुझे उसका उत्तर भी उसी स्पष्टता से विस्तार पूर्वक देना पड़ेगा, तभी आपको यथोक्त रीति से समझ में आयेगा और आपको पुन:-पुनः पूछना नहीं पड़ेगा।
अरिदमन-यदि आप विस्तार पूर्वक समझावें तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी।
३२. तीन कुटुम्ब [अरिदमन राजा का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण था, पूरी धर्म सभा उत्तर सुनने को प्रातूर थी। विवेकाचार्य भी विस्तार से सब कुछ समझाने को उद्यत थे और चारों तरफ श्रोता भी खूब एकत्रित थे । उस समय आचार्य ने मधुर स्वर में तीन कुटुम्ब का विस्तार पूर्वक वर्णन प्रारम्भ किया।]
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