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________________ ३७८ उपमिति-प्रपंच-भव कथा विवेक नामक प्राचार्य वहाँ पधारे । गन्धहस्ति जैसे हाथियों के समूह से घिरा हुआ रहता है वैसे ही महाधुरन्धर आचार्य अपने जैसे ही शान्तिमूर्ति अनेक शिष्यों से घिरे हए थे । वहाँ आकर केवली महाराज सुवर्ण-कमल पर विराजमान हुए । उनके समक्ष हाथ जोड़कर खड़े सभाजनों ने उनकी वन्दना की और जमीन पर बैठ गये। फिर केवली भगवान् विवेकाचार्य ने व्याख्यान प्रारम्भ किया। इसी समय मेरे शरीर में रहने वाले हिंसा और वैश्वानर प्राचार्यश्री के प्रताप को सहन नहीं कर सके इसलिये शरेर से बाहर निकल कर मुझ से दूर जाकर बैठ गये और मेरी प्रतीक्षा करने लगे। महाराज अरिदमन-कृत केवलो की स्तुति - शार्दूलपुर के राजा अरिदमन ने जब लोगों से उद्यान में विवेकाचार्य के पधारने के समाचार सुने तब उन्हें वन्दन करने के लिये नगर से निकले । पहिले अपनी पुत्री मदनमंजूषा का ब्याह मेरे से निश्चित करने के लिये उन्होंने स्फूटवचन को हमारे यहाँ भेजा था, उनकी वह पुत्री भी उनके साथ थी। उसकी माता रतिचला भी साथ ही थी। राजा ने राज्य के पाँच निशान बाहर ही छोडकर, उत्तरासन धारण कर मन में केवली के प्रति अत्यन्त भक्ति होने से सूरि-महाराज के अवग्रह (सभा) में प्रवेश किया । सूरि-महाराज के चरणों में पंचांग नमन पूर्वक नमस्कार कर, हाथ जोड़कर, अपने ललाट का स्पर्श करते हुए उन्होंने इस प्रकार स्तुति की। [१-४] ___ अज्ञानरूप अन्धकार के विनाशक हे सूर्य ! रागरूपी संताप का नाश करने वाले हे चन्द्र ! आपको मेरा नमस्कार हो । हे करुणासागर ! हे संसारविनाशक ! आपके पवित्र चरणों के दर्शन कराकर आज आपने हमें पाप से मुक्त कर दिया। यथार्थ में आज ही मेरा जन्म सफल हुआ है, आज ही मुझे सच्चा राज्य प्राप्त हआ है, आज ही मेरे कान सचेष्ट हुए हैं और आज ही मैं अपनी आँखों से देखने वाला बना हूँ। क्योंकि, सब प्रकार के पापों और संतापों के अजीर्ण को विरेचन करने वाले और मेरे महाभाग्य को सूचित करने वाले प्रापश्री का मुझे आज दर्शन हुआ है। समस्त पापों का नाश करने वाले प्राचार्य महाराज की उक्त सुन्दर शब्दों में स्तुति करने के पश्चात् राजा ने अन्य साधुओं की वन्दना की और शुद्ध भूमि देखकर जमीन पर बैठ गया। उस समय स्वर्ग और मोक्ष को प्रत्यक्ष करा रहे हों इस प्रकार आचार्यश्री और सर्व साधुओ ने उन्हें धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया। * फिर सभा में आये हए अन्य सभी लोगों ने प्राचार्यश्री और अन्य साधुओं की भाव पूर्वक वन्दना की। सब के बैठ जाने पर लोक-यात्रा करने में उद्यत आचार्यश्री ने अपनी देशना प्रारम्भ की। [५-११] * पृष्ठ २८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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