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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कनकशेखर को मारने के लिये हाथ उठाया। उसी समय * शीघ्रता से कनकचूड महाराजा आदि सभी लोग वहाँ आ पहुँचे और 'अरे ! यह क्या कर रहे हो ?' कहते हुए शोर करने लगे । कनकशेखर के गुणों से आकर्षित जो देव वहाँ उपस्थित थे उन्होंने मुझे जकड़ लिया और सब के देखते हुए मुझे उठाकर आकाश मार्ग में फेंका और मैं उस राज्य की सीमा से बाहर जा पड़ा। चोरों की पल्ली : कई चोरों की हत्या
देवता ने मुझे अम्बरीष जाति के वीरसेन आदि चोरों की बस्ती में ला पटका । किसी पर प्रहार करने की दृष्टि से धारण की हुई मेरे हाथ की चमकती कटार को चोरों के सरदार ने देखा और देखते ही मझे पहचान लिया । वे सब कुछ समय पूर्व मेरे अधीन रह चुके थे इसलिये तुरन्त मेरे चरणों में गिर पड़े और मुझे पूछने लगे कि, 'देव ! बात क्या है ? मैं उन्हें कुछ भी उत्तर न दे सका, जिससे चोरों को आश्चर्य हुआ । वे मेरे बैठने के लिये प्रासन ले आये, पर मेरे से उस पर बैठा ही नहीं गया। उनके मन में मेरे प्रति दैन्य भाव जागृत हुआ । उनकी करुणा से प्रभावित होकर देवता ने अपनी जकड़ से मुझे मुक्त किया । देवता से मुक्त होने पर मेरे अंगोंपांग हिलने-डुलने लगे, जिसे देखकर चोरों को प्रसन्नता हुई।
फिर उन्होंने मुझे आसन पर बिठाया और ती हई सारी घटना के बारे में प्रेम पूर्वक पुनः-पुनः पूछने लगे । मैंने मन में विचार किया कि 'यह तो बड़ी दिक्कत की बात है कि जहाँ जाओ वहीं दूसरों की चिन्ता में जलने वाले और ऊपर से कृत्रिम स्नेह दिखाने वाले लोग मिलते हैं और क्षणभर भी सुख से नहीं बैठने देते।' जब मैंने दूसरी बार भी उत्तर नहीं दिया तो वे फिर पुन:-पुनः आग्रह पूर्वक पूछने लगे। इसी समय मेरे अन्तःस्थल में विद्यमान हिंसा और वैश्वानर जागत हो गये जिससे मैंने तत्काल ही कई चोरों को मार गिराया । ऐसी अनोखी घटना देखकर वहाँ बहुत शोर होने लगा। मेरे सामने चोर अधिक संख्या में थे, अतः उन्होंने मुझे घेर लिया, मेरे हाथ से कटार छीन ली और स्वजाति को भय होने से मुझे बांध दिया। शत्रुत्व की आशंका
उस समय सूर्यास्त हो जाने से चारों तरफ अन्धकार फैल गया। चोरों ने एकत्रित होकर विचार किया कि 'इस नन्दिवर्धन ने पहले भी अपने नायक प्रवरसेन को मार दिया था और अभी भी अपने कई प्रधान मुख्य पुरुषों को मार दिया है, इससे स्पष्ट है कि यह अभी तक अपना शत्रु हो है । इसे अच्छा समझकर हम इसके अधीन होकर रहे और देश-देशान्तर में इसे अपना स्वामो प्रसिद्ध किया, अतः अब यदि हम इसे मार देंगे तो अपना अधिक अपयश होगा । अग्नि को जैसे पोट में बाँधकर नहीं रखा जा सकता वैसे इसे रखना भी कठिन है, अतः इसे दूर प्रदेश में ले
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