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प्रस्ताव ३ : खूनी नन्दिवर्धन की कदर्थना __३७३ मेरे मन में निरन्तर उद्वेग बढने लगा । इस प्रकार भूख-प्यास में मेरे कुछ दिन निकले और मैं अत्यधिक दुर्बल हो गया। एक दिन सरदार रणवीर ने मुझे पालन करने वाले चोर से पूछा कि, ' मैं कितना मोटा हुआ हूँ ?' उत्तर में चोर ने कहा कि, 'देव ! इसे मोटा बनाने के प्रयत्न तो बहुत कर रहा हूँ पर किसी भी प्रकार इसमें शक्ति की वृद्धि होती ही नहीं।' उसके बाद उस चोर के घर में भूखा-प्यासा और दुःख भोगता हुआ कई दिनों तक रहा ।
अन्यदा एक दिन चोर बस्ती पर कनकपुर नगर की सेना ने हमला कर दिया। इसकी खबर लगते ही चोर बस्ती छोड़कर भाग गये । राजा की आज्ञा से वह बस्ती लूट ली गई, * और जितने चोर पकड़े जा सके उन्हें पकड़ लिया गया । पकड़े गये सब लोगों को कनकपुर ले जाया गया। मैं भी पकड़ा गया और मुझे भी कनकपुर ले जाया गया। कनकपुर : विभाकर के समक्ष
कनकपुर में महाराजा विभाकर के समक्ष मुझे एक चोर के रूप में प्रस्तुत किया गया। मुझे देखते ही विभाकर कुछ-कुछ पहचान गया और अपने मन में विचार करने लगा कि 'अरे ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है ? इस पुरुष के शरीर में मात्र चमड़ी और हड्डियाँ रह गई हैं जिससे यह जले हुए वृक्ष के ठूठ जैसा लग रहा है, फिर भी यह कुमार नन्दिवर्धन जैसा दिखाई दे रहा है, इसका क्या कारण हो सकता है ?' सोचते हुए उसने नख-शिख पर्यन्त मुझे घूर-घूर कर देखा और उसे निश्चय हो गया कि मैं नन्दिवर्धन ही हूँ। फिर उसने विचार किया कि कुमार नन्दिवर्धन यहाँ इस रूप में कैसे आ सकता है ? विधि (भाग्य) का विलास (खेल) विचित्र प्रकार का होता है । भाग्य के वशीभूत प्राणियों के लिये क्या असम्भव है ? जिस महानरेन्द्र के चरणों में मुकुटधारी राजा नमस्कार कर पाँवों की पूजा करते हैं और कुछ भी वचन बोलने पर 'जो आज्ञा, जो आज्ञा' कहते नहीं थकते। वही महानरेन्द्र उसी भव में दुर्भाग्यवश भिखारी बनते और अनेक प्रकार के नारकीय दुःख भोगते हुए भी देखे गये हैं। [१-२] अतः अस्थिपंजर बना यह पुरुष नन्दिवर्धन ही लगता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।' यह विचार आते ही उसे मेरे साथ किया गया पहले का स्नेहपूर्ण व्यवहार याद आ गया और आँखों से आनन्दाश्रु के प्रवाह से कपोलों को क्षालित करते हुए वह अपने आसन से उठ खड़ा हुया और मुझ से बहुत ही प्रेम से आलिंगन पूर्वक मिला । घटना की विचित्रता को देखकर सम्पूर्ण राज्यकुल आश्चर्य में डूब गया और सोचने लगा कि यह क्या है ? विभाकर द्वारा सन्मान
राजा विभाकर ने अपने सिंहासन पर आधा आसन देकर मुझे बिठाया और पूछा - 'मित्र ! यह सब कैसे हुआ ?' मैंने प्रारम्भ से अन्त तक अपनी सब
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