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प्रस्ताव ३ : वैश्वानर और हिंसा के प्रभाव में
३७१ नारकीय घोर दुःख सहन करते हुए एक माह तक मैं कैद में पड़ा रहा । इस अवधि में परिजनों में से किसी ने न तो मेरे बन्धन ही ढीले किये और न मेरी तरफ देखा ही। सभी ने मेरा अनादर किया और यह सारा समय मैंने महान दुःख में बिताया। कदखाने से छुटकारा : नगर को जलाना
एक माह तक जेल में भूखा-प्यासा रहने से मेरा शरीर एकदम क्षीण हो गया। एक दिन कमजोरी के कारण से आधी रात को कुछ क्षण के लिये मुझे नींद आ गई । उस समय चूहे ने आकर मेरे हाथ-पाँव के बन्धन काट दिये जिससे मैं स्वतन्त्र हुमा । मैंने तुरन्त दरवाजे खोले और बाहर निकल गया, तब मुझे मालूम हुआ कि मुझे राजभवन में ही कैद करके रखा था ।
प्राधी रात होने से चौकीदार आदि सो गये थे, कोई चल फिर नहीं रहा था । मैंने सोचा कि 'यह सम्पूर्ण राज कुल और पूरा नगर अब मेरा शत्रु हो गया है। इन सब लोगों ने मुझे अनेक प्रकार के दुःख देने में कोई कमी नहीं रखी है।' इतना सोचते ही मेरे शरीर में निवास करने वाला मेरा मित्र वैश्वानर झनझनाया और हिंसा ने आनन्द में आकर हुंकार भरी, जिससे मेरे शरीर पर इन दोनों का प्रभाव बढ़ गया । उस समय मैंने देखा कि पास में ही एक अग्निकुण्ड जल रहा है । मैंने मन में सोचा कि 'शत्रु का नाश करने का उपाय तो यहाँ मौजूद है। बस इतना ही तो करना है कि सकोरे में अंगारे भरकर * थोड़े-थोड़े महल और नगर के स्थानों पर डाल दू और विशेष रूप से शीघ्र-प्रज्वलित होने वाले इन्धन-बहुल स्थानों में आग लगा दूं। बस मेरा काम पूरा हो जायगा । पूरा नगर और राजकुल इस प्रकार अपने आप ही भस्म हो जायगा' ऐसे अधम विचार के उठते ही मैंने वैसा ही किया। शीघ्र जलने वाले राजमहल और नगर के स्थानों को मैं जानता था उन स्थानों को मैंने चारों तरफ से जला दिया जिससे चारों और धू-धू- करती अग्नि की इतनी विकराल लपटें उठने लगी कि मैं स्वयं भी उसमें से भवितव्यता के बल पर ही बड़ी कठिनता से जलने से बच कर निकल सका । मैं जब नगर से बाहर निकल रहा था तब मैंने नगर से भागते हुए लोगों की भारी क्रन्दनरव से युक्त चिल्लाहटें सुनी । योद्धा चिलाने लगे- 'अरे लोगों ! दौड़ो ! दौड़ो !!' उनके मन में ऐसी शंका हुई कि शत्रु सेना ने ही यह अधम कार्य किया है। उस समय मेरा शरीर एकदम क्षीण हो गया था और शरीर की कमजोरी का प्रभाव मेरे मन पर भी पड़ा था जिससे में अपना सारा धैर्य खो बैठा।
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