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प्रस्ताव ३ : पुण्योदय से बंगाधिपति पर विजय
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वक्ष से लगाया और बार-बार मेरा मस्तक चूमने लगे। इसी समय मैंने माताजी को देखा । उन्हें देखते ही मैंने झुककर उनके चरण स्पर्श किये । माताजी ने भी मुझे उठाकर गले लगा लिया और मेरे मस्तक पर चुम्बन अंकित किया तथा हर्षाश्रुपूरित नेत्रों से गदगद होकर उन्होंने कहा-वत्स ! तेरी माता का हृदय तो वज्र शिला के टुकड़ों से बना हुआ लगता है, क्योंकि इतने दिनों तक तेरा वियोग सहने पर भी उसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो गये । अहा ! जैसे प्राणी गर्भावास में चारों तरफ से घिरा हुप्रा रहता है वैसे ही हम सब नगर अवरोध (शत्रु सेना के घेरे) में फंसे हुए थे। आज तुमने ही हम सब को उस घेराव से छुड़ाया है । भगवान करे मेरी आयु तुझे लग जाय।
माता-पिता के ऐसे मधुर शब्द सुनकर मैं लज्जित हुआ और कुछ नीचा मुंह कर जमीन की तरफ देखने लगा। फिर हम सब रथों में प्रारुढ हुए। विजय के साथ जयस्थल में प्रवेश
शत्र-नाश और मेरे मिलन से समस्त राज परिवार अत्यधिक हर्षित हा और वे अनेक प्रकार से प्रानन्द मनाने लगे। कोई दान देने लगे, कोई अन्तःकरण के हर्ष से गाने लगे, कई भेरी वादन के उद्दाम स्वरों के साथ नाचने लगे, कई हर्षनाद करने लगे, कई जोर से जयघोष करने लगे, कई केशर चन्दन से सुगन्धित गुलाल उड़ाने लगे, कई रत्नों की वर्षा करने लगे और कई परस्पर प्रेम पूर्वक मिलते हए पूर्णपात्र ले जाने लगे। सम्पूर्ण नगर के लोग प्रसन्न हो गये । कूबड़े और ठिंगणे लोग नाच-कूद करने लगे और अन्तःपुर के रक्षक/नाजिर भी हाथ उठा-उठा कर नृत्य करने लगे । इस प्रकार अत्यन्त प्रमोय पूर्वक जयस्थल में मेरा प्रवेश हुआ। फिर थोड़ी देर तक राज्य भवन में रुककर मैं अपने महल में गया। [१-६] वैश्वानर और हिंसा के प्रति प्रगाढासक्ति
अपने भवन में जाकर मैंने दिन के सारे दैनिक कर्तव्य परे किये । अनेक प्रकार के महान और अदभुत दृश्यों को देखते हुए मेरा मन अतिशय हर्षित हुआ। रात में कनकमंजरी के साथ पलंग पर सोते हुए महामोह के वशीभूत होकर मैं सोचने लगा-'अहा ! मेरे मित्र महात्मा वैश्वानर, का कैसा आश्चर्यकारी अद्भुत प्रभाव है ! उसने मुझे उत्साहित और प्रेरित दिया जिससे मुझे विजय, यश और कल्याण की परम्परा प्राप्त हुई । उसकी प्रेरणा से ही मैं यहाँ आया, मुझ में इतना उत्साह/तेज प्रकट हुआ, मेरे माता पिता को इतना संतोष हुआ और मुझे विजय प्राप्त हुई। विशालाक्षी महादेवी हिंसा का प्रभाव भी अलौकिक है। दृष्टि निक्षेप मात्र से वह तो तुरंत शत्रु का विमर्दन कर देती है । * महादेवी हिंसा जितना प्रत्यक्ष फल देती है, उससे अधिक प्रभाव में वृद्धिकारी अन्य कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता।' इस प्रकार विचार करते हुए मैं वैश्वानर और हिंसादेवी पर अधिकाधिक आसक्त होने लगा और मैंने अपने मन में निर्णय किया कि ये दोनों * पृष्ठ २७०
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