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________________ ३२८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा क्योंकि मेरे विचार से रत्नवती के योग्य वर वही हो सकता है।' राजा की आज्ञा को शिरोधार्य कर हम यहाँ आये हैं। __ कुमार कनकशेखर ! तुम्हारे पिताजी के तीनों प्रधानों ने अपनी सारी बात हमें सुनादी है, अतः अब तुम्हें शीघ्र हो यहाँ से जाना चाहिये । यद्यपि तुम्हारे जाने से हमें विरह होगा जिसे हम सहन नहीं कर सकेंगे तथापि वहाँ जाने के पक्ष में प्रबल कारण होने से और तुम्हारे पिताजो की अवस्था गंभीर होने से हमें खेद पूर्वक निर्देश देना पड़ता है कि तनिक भी समय गंवाये बिना शीघ्र कुशावर्त पहुँचकर तुम दोनों को राजा कनकचूड के मन को हषित करना चाहिये। दोनों कुमारों का प्रयारण पिताजी की आज्ञा सुनकर मैं (नन्दिवर्धन) बहुत प्रसन्न हुआ कि पिताजी ने मनोनुकूल प्रज्ञा प्रदान की है । चलो, हम दोनों का वियोग तो नहीं होगा। यह सोचकर मैंने और कनकशेखर ने कहा -'तात ! जैसी आपकी प्राज्ञा ।' पिताजी ने उसी समय सानन्द प्रयाण योग्य चतुरंगी सेना को तैयार करने की आज्ञा दी, उसके लिये प्रधान पुरुषों की नियुक्ति की, प्रयाण योग्य उचित मंगल का विधान कर हम दोनों को विदा किया। उस समय मेरे अन्तरंग परिजनों के मध्य में मित्र वैश्वानर ने भी मेरे साथ ही प्रयाण किया और पुण्योदय मित्र ने भी गुप्तरूप से साथ ही प्रयारण किया। इस प्रकार चलते-चलते हमने कितना ही रास्ता पार कर लिया। २१ : रौद्रचित्त नगर में हिंसा से लग्न रौद्रचित्त नगर चलते-चलते हम लोग रौद्रचित्त नगर में आ पहुँचे । इस नगर का अन्तरंग चोरों की पल्ली (बस्ती) जैसा है। यह दुष्ट लोगों का निवास स्थान और अनर्थ रूपी वैतालों की जन्मभूमि है और नरक का द्वार तथा संपूर्ण संसार में संताप का कारण है । यथा किसी का सिर काट देना, छुरा भोंक देना, यंत्र में पील देना, मार देना आदि संतापकारक घोर भाव इस रौद्रचित्त नगर के लोगों में सर्वदा रहते हैं, इसीलिये इसे दुष्टों का निवास स्थान कहा गया है । [१-२] कलह की वृद्धि, प्रीति का विच्छेद, वैर की परम्परागत बढोतरी, माँबाप और बच्चों आदि को मारने में निष्ठुरता, आदि अनेक अवर्णनीय क्षोभरहित अनर्थकारी कार्य इस नगर में होते ही रहते हैं, इसीलिये इस पत्तन को अनर्थ रूपी वैतालों की जन्मभूमि कहा है । [३-५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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