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प्रस्तावना
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कराने के कारण सुत्तपिटक का साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्त्व विशेष है। प्राचीन नीति कथाओं का संग्रह 'जातक' इसी में संकलित है । जातक, सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय का दशवाँ ग्रन्थ है। इसमें, अनेकों कहानियाँ हैं । कुछ छोटी हैं और कुछ बड़ी । कुछ कथाएं तो इतनी बड़ी हैं कि उनके स्वरूप को देखते हुये, उन्हें संक्षिप्त महाकाव्य कहा जा सकता है ।
'जातक' का अर्थ होता है--'जन्म-सम्बन्धी कथाएं'। तथागत ने अपने पूर्वजन्मों का, और घटनाओं का स्मरण करके, उन्हें अपने शिष्यों को सुनाया। बुद्धत्व प्राप्ति से पूर्व, कई योनियों में, उन्हें जन्म लेना पड़ा था। जिनमें मनुष्य, देवता, पशु-पक्षी आदि की योनियाँ रहीं। इन सब योनियों में रहकर भी, उनका 'बोधिसत्त्व' यथावस्थित रहा । 'बोधिसत्त्व' का अर्थ होता है--'बोधि के लिये उद्यमशील प्राणी (सत्त्व)' । इन्हीं कहानियों को कह कर, बुद्ध ने, लोगों को अपना उपदेश दिया। ये कहानियाँ, ईसा पूर्व की पांचवीं शताब्दी से लेकर, ईसा के बाद की प्रथमद्वितीय शताब्दी तक रची गईं। इनमें से अनेकों कहानियों का विकसित रूप रामायण और महाभारत में भी पाया जाता है ।।
बुद्ध ने परम्परागत लौकिक गाथाओं को सुभाषितों के रूप में ग्रहण किया। 'विलारवत' जातक की एक गाथा में 'विडालवत' का लक्षण दिया गया है। बुद्धकाल में, कोई ऐसी विडाल कथा प्रचलित रही होगी, जिसमें, चूहों को धोखा देकर कोई विडाल उन्हें खा जाता था। धर्म की आड़ में धोखा देने वाले कृत्य का यह प्रतीकात्मक आख्यान है । इस प्रकार के कार्य को, उस समय में 'विडालव्रत' के रूप में पर्याप्त मान्यता दी जा चकी होगी, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए बुद्ध ने, उसे जातक गाथा में सम्मिलित करके अपना लिया । महाभारत, मनुस्मृति एवं विष्णु स्मृति में भी, इस विडालव्रत का उल्लेख आया है।
_ 'जातक' में जातकों की कुल संख्या ५४७ है। जिनमें, कुछ जातक नये आ गये हैं। और, कुछ प्राचीन जातक इसमें नहीं आ पाये हैं । तथापि यह जातक साहित्य, उपदेश पूर्ण और मनोरंजक है। १. जातक-प्रथम खंड-भूमिका-भदन्त प्रा० कौस० पृ. २४ २. यो वे धम्म धजं कत्वा निगूलहो पापमाचरे । विस्सासयित्वा भूतानि विलारं नाम तं वतं ।
-विलारवत जातक-१२८ ३. महाभारत-५-१६०-१३ । ४. धर्मध्वजो सदा लुब्धादमिको लोकदम्भकः । वैडालवतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसंधिकः ।।
--मनुस्मृति-अ. ४-१६५ ५. विष्णुस्मृति–६३-८ ६. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिट्रेचर-डॉ. विन्टरनित्ज, वॉ. II, पृष्ठ-१२४, फुटनोट १
७. वही-पृष्ठ-१२५, फुटनोट ४ Jain Education International
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