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________________ ३२४ उपमिति भव-प्रपंच कथा के समान सुना - अनसुना कर दिया ।' उस समय मैंने मन में विचार किया कि, 'यदि दुर्मुख पिताजी की आज्ञा के बिना ऐसी धृष्टता करता तब तो मैं उसे स्मरण रखने योग्य दण्ड देता । अन्य कोई व्यक्ति कोई कार्य करे और उसका निषेध नहीं किया जाय तो उसमें उसकी सम्मति ही मानी जाएगी । इस न्याय से पिताजी की जानकारी में सब कुछ होते हुए भी वे दुर्मुख को मना नहीं करते, इससे उनकी सम्मति स्पष्ट है । अब इस सम्बन्ध में मुझे क्या करना चाहिये ? क्योंकि भगवान् ने कहा है कि माता-पिता के उपकार का बदला चुकाना अति दुष्कर है, अतः पिताजी से विग्रह ( लड़ाई) करना भी योग्य नहीं है । श्रावकों पर फिर से लगाने गये कर के बोझ और दण्ड को मैं सहन भी नहीं कर सकता हूँ, अतः मेरे लिये यहाँ से चला जाना ही श्रेयस्कर है ।' यही सोचकर बिना किसी को सूचना दिये कुछ अन्तरंग मित्रों के साथ मैं यहाँ आ गया | भाई नन्दिवर्धन ! इस प्रकार पिताजी ने मेरा अपमान किया है, तुम समझ गये होगे । २०. विमलानना और रत्नवती कनकशेखर की बात सुनकर मैंने उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए कहा- भाई ! जिन परिस्थितियों में तुम पड़ गये थे, उनमें तुम्हारा यहाँ आना ठीक ही हुआ । जो व्यक्ति अपने सन्मान को समझता है, वह कभी भी स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने वालों के साथ नहीं रहेगा । कहा भी है कि "तेजोमय सूर्य जब तक अन्धकार को दूर कर सज्जनों के मन को प्रसन्न कर सकता है तभी तक आकाश में रहता है और जब वह अन्धकार को प्राते देखता है तब अन्य समुद्र में छिपकर समय की प्रतीक्षा करता है । [ समय आने पर फिर अन्धकार को दूर कर पूरे वेग से आकाश में प्रकाशित होता है ।" ] कनकशेखर को पुनः बुलाने मन्त्रियों को भेजना मेरे उपरोक्त वचन सुनकर कनकशेखर सब तरह के आनन्द - विनोद और बातचीत में दस हम दोनों मेरे महल में बैठे थे कि पिताजी का संदेश हमको प्रणाम कर कहा - महाराज ने श्राप दोनों बुलाया है ।' “जैसी पिताजी की श्राज्ञा" कहकर हम दोनों पिताजी से मिलने निकले । हमारे पिताजी के पास पहुँचने के पहले ही पिताजी के पास से सभा मण्डप में से तीन प्रधान पुरुष प्रतिशीघ्रता से बाहर आये । उनकी आँखों से हर्षाश्रु बह रहे थे जिनसे उनकी आँखे गीली हो रही थीं । उन्होंने कनकशेखर का चरण-स्पर्श बहुत सन्तुष्ट हुया । इस प्रकार दिन बीत गये । ग्यारहवें दिन लेकर एक व्यक्ति आया और राजकुमारों को शीघ्र अपने पास * पृष्ठ २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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