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________________ २७८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा करते हैं, जिससे उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे परमार्थतः सुखी होते हैं और महापुरुषों की संगति से उत्तम मार्ग को प्राप्त करते हैं। फिर वे भी विज्ञ पूरुषों की भांति गुरु, देव और तपस्वियों का अर्चन-पूजन, वन्दन, सत्कार आदि बहुमान पूर्वक करते हैं। [१३७-१५३] प्राचार्य महाराज का उपदेश सुनकर मध्यमबुद्धि ने विचार किया कि आचार्यश्री ने अपने ज्ञान और अनुभव से मध्यम पुरुषों के जो गुणावगुण लक्षण बताये हैं, वे सब मुझे स्वयं अनुभवसिद्ध हैं, मेरे में घटित हैं। मेरे मन को स्थिति वस्तुतः इन महापुरुष द्वारा वरिणत स्थिति जैसी ही है। मनीषी ने भी अपने मन में यही सोचा कि प्राचार्यश्री ने स्पष्ट रूप से मध्यम-पुरुषों के जो लक्षण बताये हैं, वे सभी मेरे भाई मध्यमबुद्धि में विद्यमान हैं। [१५४-१५५] सूरि महाराज ने अपना उपदेश आगे चलाया :जघन्य प्राणी का स्वरूप हे भव्य प्राणियों ! मैंने तुम्हें उपरोक्त मध्यम वर्ग के प्राणियों का स्वरूप बतलाया वह तुम्हें समझ में आ गया होगा। अब मैं तुम्हें जघन्य प्राणियों का स्वरूप बतलाता हूँ। [१५६] मनुष्य-जन्म पाकर जो प्राणी स्पर्शनेन्द्रिय को अपना परम मित्र समझते हैं, जो स्वयं यह नहीं जानते कि वह हमारी बड़ी से बड़ी शत्रु है तथा जो हितोपदेशक विज्ञ पुरुषों पर क्रोधित होते हैं, ऐसे प्राणियों को जधन्य वर्ग के समझना चाहिये। इस वर्ग के प्राणियों को स्पर्शनेन्द्रिय का सुयोग मिलना गंजे को खुजली होने के समान समझना चाहिये। परमार्थतः आत्मा को हानि पहुँचाने वाली स्पर्शनेन्द्रिय के लेशमात्र सुख पर जब ऐसे प्राणी एक बार आसक्त हो जाते हैं तब उन्हें भविष्य का विचार नहीं रहता । उस पर गाढासक्ति हो जाने के कारण उनकी विपरीत मति हो जाती है और वे स्पर्शनेन्द्रिय को ही अपना स्वर्ग, परमार्थ और सुख का सागर समझ बैठते हैं। * ऐसे विचारों से उनके हृदय में चारों तरफ अन्धकार फैलता है और विवेक का शोषण करने वाली राग-वृत्ति चित्त में बढ जाती है । अर्थात् वे विवेक-शून्य हो जाते हैं और अन्धकार में भटकने लगते हैं। उनके हृदय में सदभावों का प्रवेश न होने से वे सन्मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। उनकी बुद्धि भी अन्धकारग्रस्त हो जाती है। फलस्वरूप उनकी बुद्धि इतनी विकृत हो जाती है कि वे अनार्य, अकरणीय एवं निन्द्य कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं । उस समय उन्हें अकार्य करने से रोक भी कौन सकता है ? यदि कोई उनसे कहे कि इन लोक और धर्म विरुद्ध कार्यों से अनेक लोग तुम्हारी निन्दा करते हैं अतः तुम्हें इस प्रकार के अधम कार्य नहीं करने चाहिये, तो वे उसके भी शत्रु बन जाते हैं। ऐसे पापी प्राणी चन्द्र जैसे अपने निर्मल कुल को कलंकित करते हैं और अपने अधम * पृष्ठ २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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