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उपांमति-भव-प्रपंच कथा
लेते हैं, ऐसे बलवान पुरुषों को भी ये इन्द्रियाँ जीत लेती हैं। इन्द्र आदि महाशक्तिवान प्राणी जो तीनों लोकों को अपनो शक्ति से अंगुली पर नचा सकते हैं, उन्हें भी इन्द्रियाँ क्षणभर में अपने वश में कर लेती हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे बड़े देव न केवल इन्द्रियों के वशीभूत हो जाते हैं अपितु इनके किंकर बन जाते हैं। सर्व शास्त्रों में प्रवीण और परमार्थ के जानकार व्यक्तियों को भी जब इन्द्रियां अपने अधीन कर लेती हैं तब वे बालक की तरह मूर्खतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ये इन्द्रियाँ र अपनी शक्त-पराक्रम के सन्मुख देव, दानव और मानवों से भरपूर तीनों लोकों को पामर तुल्य मानती हैं। हे राजन् ! इसीलिये मैंने कहा कि इन्द्रियाँ दुर्जय हैं। इस प्रकार इन इन्द्रियों के गुणों का सामान्य रूप से मैंने वर्णन किया है । [६१-६६]
तत्पश्चात् ज्ञान द्वारा मनीषी का वृत्तान्त जानकर दन्तपंक्ति से निसृत आभा से मानों अधर रक्त हो गये हों ऐसे सूरि महाराज ने सब को ज्ञान देने के लिये कहा--हे राजन् ! सर्व इन्द्रियों को वश में करने की तो बात ही क्या करू ? पर एक स्पर्शनेन्द्रिय ही संसार में इतनी बलवान है कि अकेली इस इन्द्रिय को जीतना भी संसार के अनेक प्राणियों के लिये महा कठिन है, जब कि यह अकेली तीनों लोकों के चल-अचल प्राणियों पर विजय प्राप्त कर सब को अपने वश में रखती है। [७०-७२] स्पर्शनेन्द्रिय के जेता
शत्रुमर्दन-महाराज! इस स्पर्शनेन्द्रिय को वश में करने वाला कोई तो होगा या त्रैलोक्य में उस पर विजय प्राप्त करने वाला कोई भी नहीं है ? [७३] '
प्राचार्य-राजन् ! स्पर्शनेन्द्रिय को वश में करने वाले पुरुष ससार में हैं ही नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकते । पर उसे वश में करने वाले पुरुष विरले हो हैं, यह कह सकते हैं। विजेता विरले ही क्यों हैं ? इसका कारण मैं आपको बताता हूँ, आप सुनें। [७४]
इस संसार में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट और उत्कृष्टतम चार प्रकार के पुरुष होते हैं। इन चारों प्रकार के पुरुषों का स्वरूप इस प्रकार है। [७५] उत्कृष्टतम प्राणी का स्वरूप
इनमें से उत्कृष्टतम (उत्तमोत्तम) पुरुष का स्वरूप पहले बताता हूँ - अनादि काल से प्राणी का सम्बन्ध स्पर्शनादि इन्द्रियों के साथ चलता आ रहा है । वह प्रत्येक भव में इन्द्रियों का लालन-पालन करता आ रहा है अतः उसे इन्द्रियां बहुत प्रिय लगती हैं। जब सर्वज्ञ देव द्वारा प्ररूपित आगमों के आधार से उत्कृष्टतम पुरुषों को इन्द्रियों का स्वरूप विशेषकर स्पर्शनेन्द्रिय का स्वरूप समझाया जाता है कि ये इन्द्रियाँ अत्यधिक दोष उत्पन्न करने वाली हैं तब वे उससे संतुष्ट हो जाते हैं अर्थात् उससे विरक्त हो जाते हैं । यही कारण है कि महात्मा पुरुषों ने इन्द्रियों का * पृष्ठ २०१
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