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________________ प्रस्ताव ३ : प्रबोधनरति प्राचार्य २६६ जमीन पर हाथ और मस्तक लगाकर (पंचांग) प्रणाम किया। उस समय उसके मन में भावना जाग्रत हुई कि इस प्राणी को संसार अरण्य में तीर्थंकर महाराज के दर्शन या देव-वंदन का लाभ मिलना अत्यन्त कठिन है। यह भावना इतनी अपूर्व हृदय-स्पर्शी हुई कि उससे उसका मन अतिशय निर्मल हो गया। आनन्दाश्रु से उसकी आँखें डबडबा गईं और नेत्र-जल से उसने अपने पाप-मल को धो डाला। फिर विचक्षण सुबुद्धि भगवान की मूर्ति पर दृष्टि स्थिर कर, प्रचांग नमस्कार कर जमीन पर बैठा और भक्ति पूर्वक शक्रस्तव (नमोत्थुरणं) बोला। फिर हाथ की दसों अंगुलियों को भीतर ही भीतर कमल के डोडे की तरह मिलाकर, दोनों हाथ की कोहनियों को पेट पर लगाकर, योगमुद्रा पूर्वक एकाग्र चित्त से लय लगाकर मधुर स्वर से भगवान् आदिनाथ की स्तुति करने लगा। [२१-२७] "हे जगदानन्द ! हे मोक्षमार्गविधायक! आपको नमस्कार हो। हे जिनेन्द्र ! विदित अशेषभाव ! (विश्व के समस्त भावों के जानकार), सद्भावनायक ! (सद्भावों के प्रदर्शक) आपको नमस्कार हो! हे प्रणष्टसंसार-दुःख-विस्तार परमेश्वर ! आपको नमस्कार हो! हे वचनातीत ! त्रैलोक्य-नरशेखर ! आपको नमस्कार हो। संसार समुद्र में डूबते अनन्त प्राणियों के उद्वारक! महाभयंकर संसार अटवी के सार्थवाह ! आपको नमस्कार हो । हे प्रभो ! अनन्त परमानन्दपूर्ण मोक्षधाम में रहने वाले आपका लोग भक्तिभाव से यहीं साक्षात् दर्शन करते हैं। हे विभो ! यदि ऐसा न हो तो आपकी मूर्ति की स्तुति करने वाले प्राणियों के मन में जैसा अतिशय प्रमोद होता है वैसा प्रमोद त्रैलोक्य के किसी भी अन्य पदार्थ से क्यों नहीं प्राप्त होता ? मुझे तो आपकी मूत्ति में आपका साक्षात्कार हो रहा है। हे नाथ ! हे सदानन्द ! जब तक संसारी प्राणियों के चित्त में आपका निवास नहीं होता तभी तक पाप के परमाणुओं का ताप उनके हृदय में रहता है, पर जैसे ही आपका निवास प्राणियों के चित्त में हो जाता है वैसे हो तुरन्त समस्त पापपरमाणुओं का एकदम नाश हो जाता है । * हे नाथ ! इससे उनके सब पाप धुल जाते हैं और सद्भाव के अमृत सिंचन से उन्हें निरन्तर अपूर्व मोद (आनन्द) प्राप्त होता है। हे स्वामिन् ! जिन्हें आपका सान्निध्य (आश्रय) प्राप्त नहीं होता वे रागादि चोरों से लूट जाते हैं। हे देव ! आपको निःशंक मन से ग्रहण कर, मद मत्सर आदि छः रिपुत्रों के कंठ पर पैर रखकर (नाश कर) प्राणी मोक्ष को प्राप्त होते हैं। हे नाथ ! यदि आप प्राणियों को अहिंसारूपी हाथ के सहारे से धारण नहीं करते, ऊपर नहीं खींचते तो सारा संसार नरक रूपी भयंकर अंधकूप में पड़ गया होता। हे जिनेन्द्र ! भव्य प्राणियों को आपका शरीर अत्यन्त कमनीय, सर्व क्लेश रहित, विकार रहित, श्रेष्ठ और बहुत मनोहर प्रतीत होता है। आपके रमणीय शरोर को देखते ही प्राणी को ऐसा लगता है कि हे वीतराग प्रभो ! आप स्वयं अनन्त वीर्य-युक्त और सर्वज्ञ हैं। फिर भी अभव्य प्राणियों को वैसे नहीं लगते; इसका * पृष्ठ १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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