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________________ प्रस्ताव ३ : मदनकन्दली २४६ हुए कामदेव की रानी हाथ के स्पर्श से पूजा करने लगी। चन्दन से रति और कामदेव का विलेपन करते हुए रानी ने बाल के सम्पूर्ण शरीर को अपने कोमल हाथ से स्पर्श किया। बाल के शरीर में सूक्ष्म रूप से स्थित माता और स्पर्शन की प्रेरणा से मलिन-बुद्धि बाल के मन में विचार आया कि इस कोमलांगी स्त्री के हाथ का स्पर्श मात्र मुझे कितना मृदु लग रहा है। मैंने अपने जीवन में कभी भी ऐसे कोमल स्पर्श का अनुभव नहीं किया। अहो ! मैं अभी तक अन्य स्पर्शों को व्यर्थ ही कोमल मान रहा था । अब तो मुझे ऐसा लग रहा है कि तीनों लोकों में भी इस स्त्री से अधिक कोमल कोई वस्तु हो ही नहीं सकती। कामदेव की पूजा समाप्त कर मदनकन्दली रानी वहाँ से अपने स्थान पर चली गई। [७२-८२] बाल की विचित्र दशा मदनकन्दली के वहाँ से चले जाने पर 'मुझे यह स्त्री किस प्रकार प्राप्त हो' इसी विचार और चिन्ता में बाल का हृदय विह्वल और व्यथित हो गया। उसके मन में अवर्णनीय अन्तस्ताप होने लगा, वह अपने आपको भूल गया और शय्या में पड़ा-पड़ा लम्बे-लम्बे निःश्वास छोड़ने लगा। जैसे मूछित हो, मूक हो, पागल हो, सर्वस्व हार गया हो, ग्रहाविष्ट हो, तप्त शिला पर मत्स्य पड़ा हो वैसे ही वह शय्या पर इधर से उधर लोट-पोट होते हुए तड़फने लगा। मध्यमबुद्धि का वासभवन में प्रवेश उस समय मध्यमबुद्धि जो शयनकक्ष के बाहर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, सोचने लगा कि, अरे ! इतना समय हो गया, अभी तक बाल बाहर क्यों नहीं निकला ? अन्दर क्या कर रहा है ? जरा भीतर जाकर देख तो सही ! यह सोचकर मध्यमबुद्धि शयनकक्ष में प्रविष्ट हुआ और हाथ से छकर उसने कामदेव की शय्या को देखा। उसे हाथ लगाते ही उसका भी मन उस तरफ आकर्षित हो गया, क्योंकि वह शय्या अत्यन्त कोमल थी। जब उसने अधिक ध्यानपूर्वक देखा तब उसे मालम या कि शय्या के एक हिस्से पर बाल तड़फड़ा रहा है। उसकी दशा देखकर मध्यमबूद्धि सोचने लगा कि, अहो ! इस भाई ने यह क्या अकार्य कर डाला ? देव की शय्या पर चढना योग्य नहीं है। रति के रूप को भी शर्माने वाली अत्यन्त सुन्दर गुरुपत्नी हो तब भी वह सर्वथा अगम्य है। यह शय्या अत्यधिक सुख देने वाली होने पर भी देव प्रतिमा से अधिष्ठित होने से मात्र वन्दनीय है, उपभोग्य नहीं। यह सोचकर मध्यमबुद्धि ने बाल को जगाया, पर वह कुछ भी नहीं बोला, तब मध्यमबुद्धि ने कहा-अरे भाई ! तूने यह न करने योग्य कार्य किया है, देव की शय्या पर चढना या सोना ठीक नहीं। इस प्रकार बाल को अनेक तरह से समझाने लगा, पर उसने तो कुछ भी उत्तर नहीं दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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