SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ३ : स्पर्शन-मूलशुद्धि २२७ योग-शक्ति का मनीषी पर प्रभाव इसके विपरीत मनीषी को जब-जब कोमल और मृदु शय्या आदि की इच्छा होती है तब-तब वह अपने मन में विचार करता है कि, अरे ! अभी मेरे मन में जो विकार उत्पन्न हो रहा है वह स्पर्शन द्वारा उत्पन्न किया हया है, यह स्वाभाविक इच्छा नहीं है । अस्वाभाविक कामनायें सुख का कारण कैसे हो सकती हैं ? अतः इस सम्बन्ध में मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि स्पर्शन वस्तुतः पूर्णरूप से मेरा शत्र है। दृढ निश्चय के पश्चात् वह स्पर्शन के अनुकूल कोई भी कार्य नहीं करता । चू कि उसे मित्र-रूप से स्वीकार किया है और उसकी मित्रता का त्याग करने का अभी समय नहीं हया है, अतः कालयापन की दृष्टि से और उसे बुरा न लगे इसलिये मनीषी कभी-कभी स्पर्शन के अनुकूल कुछ आचरण भी कर लेता है । परन्तुं, उसमें किंचित् भी आसक्त नहीं होता। संतोष से उसका मन स्वस्थ रहता है। निरोग शरीर वाले को जैसे पथ्य भोजन सुखकारक होता हैं वैसे ही शयन आदि के उपभोग से उसे सुख प्राप्त होता है। सुविज्ञ मनीषी बाल की भांति शयन आदि उपभोगों के साथ मैत्री नहीं करता, जिससे भविष्य में उसे किसी प्रकार का दुःख उठाना पड़े वह ऐसे कर्म का बन्ध नहीं करता। बाल की मान्यता एक दिन अन्तर्ध्यान किये हए स्पर्शन ने प्रकट होकर बोल से कहामित्र! मेरे परिश्रम का कुछ फल हुआ ? तुझे उससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त हुआ ? तेरा कुछ उपकार हुअा या नहीं ? बाल ने उत्तर दिया-मित्र ! मैं तुम्हारा आभारी हूँ। तुमने सचमुच मुझ पर बहुत कृपा की है। में कल्पना भी नहीं कर सकता, ऐसे स्वर्ग के सुख का तुमने मुझे अनुभव करवाया है । वास्तव में इसमें कितनी नवोनता है ! ऐसा लगता है कि विधाता ने तुझे दूसरे प्राणियों को सुख देने के लिये ही उत्पन्न किया है । सच है, तेरे जैसे दुनिया में दूसरों का उपकार करने के लिये ही जन्म लेते हैं और मेरे जैसों का जन्म तेरे जैसों से हो सार्थक होता है। तेरे जैसे उत्तम मनुष्यों का यह सौजन्य है कि वे अपने स्वभाव से ही सर्वदा अन्य मनुष्यों के सुख के कारण बनते हैं। [१-२]. बाल का यह उत्तर सुनकर स्पर्शन ने विचार किया कि चलो, एक कार्य तो निर्विघ्न रूप से सफल हुआ। यह बाल तो अब मेरा सेवक हो गया और इतना अधिक मेरे वश में हो गया कि मैं काली वस्तु को सफेद कहूँ या सफेद को काली कहूँ तब भी वह बिना किसी विचार के उसे स्वीकार कर लेगा। ऐसा सोचते हुए स्पर्शन ने कहा--मित्र ! मेरा इतना ही प्रयोजन था, * तेरा उपकार हुआ इससे मैं अपने को भाग्यशाली समझता हूँ। * पृष्ठ १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy