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प्रस्ताव ३ : क्षान्ति कुमारी
२०५ है। अतः सन इच्छाओं को पूर्ण करने वाली इस कन्या को प्राप्त करने के लिये सम्यक् गुणाकांक्षी प्रत्येक प्राणी सर्वदा अपने हृदय से इसकी कामना क्यों नहीं करेगा? [२०-२१]
ऐसा होने से अब आप समझ गये होंगे कि गुरगों के उत्कर्ष के कारण यह सर्वांगसुन्दरा कन्या कुमार के मित्र वैश्वानर के प्रतिपक्ष (शत्र, विरोधी) के रूप में बैठी है। वैश्वानर इस राजकन्या के दर्शन मात्र से भय-विह्वल होकर दूर भाग जायेगा । वैश्वानर समस्त दोषों की खान है तो यह कन्या समग्र गुणों का मन्दिर । यह पापी वैश्वानर साक्षात् जाज्वल्यमान अग्नि है तो क्षान्ति कुमारी हिम जैसी शीतल है। अतः इनका परस्पर विरोधभाव होने के कारण ये दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते । इसीलिये मैं कहता हूँ कि, हे राजन् ! यदि तुम्हारा कुमार इस भाग्यशाली कन्या के साथ विवाह करे तो उस पापी मित्र के साथ उसकी मित्रता स्वतः ही समाप्त हो जायगी। [२२-२६] कुमार और कन्या के सम्बन्ध का प्रयत्न
जिनमतज्ञ नैमित्तिक की विस्तृत बात सुनकर विदुर ने अपने मन में विचार किया कि अहो! इन्होंने जो बात कही उसका भावार्थ ऐसा लगता है कि चित्तसौन्दर्य में शुभ परिणामों की जो निष्प्रकम्पता (स्थिरता) है, उसी से जन्मी क्षान्ति (क्षमा) ही कुमार नन्दिवर्धन और उसके पापी-मित्र वैश्वानर की मित्रता को दूर करने में समर्थ हो सकती है। इस मैत्री को दूर करने का दूसरा कोई उपाय दिखाई नहीं देता। इन्होंने जो कुछ कहा वह युक्तियुक्त है। अथवा इसमें आश्चर्य की क्या बात है ! क्योंकि जिनमत को जानने वाले कभी अयुक्त बोल ही नहीं सकते।
नैमित्तिक की बात सुनकर पद्म राजा ने अपने पास में बैठे मतिधन महामंत्री की ओर देखा। महामंत्री ने राजा की अोर देखकर शिर झुका कर नमन किया, तब राजा ने कहा-आर्य मतिधन ! तुमने यह सब सूना?
मतिधन-हाँ महाराज ! मैंने सब वार्ता ध्यान पूर्वक सुनी है ।
राजा-आर्य ! देखिये, नंदिवर्धन कुमार में बडे लोगों के योग्य अनेक गुण हैं, पर वे सब उसके पापी-मित्र वैश्वानर की संगति से दोषयुक्त और फल रहित बन गये हैं। यह स्थिति मेरे लिए बहुत ही संतापदायक और उद्वेगकारक बन गई है। अतः हे आर्य ! आप जाइये, अथवा आपके किसी वाक्पटु मुख्य सेवक को चित्तसौन्दर्य नगर भेजिये। उस देश में न मिल सकती हो ऐसी श्रेष्ठतम भेंटवस्तुएँ एकत्रित कर उसे दीजिए, सम्बन्ध करने और बढ़ाने योग्य मधुर और विवेक पूर्ण वचन उसे अच्छी तरह से सिखाइये और उसके माध्यम से शुभपरिणाम महा* पृष्ठ १५०
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