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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कलाचार्य-- हाँ, कुमार नन्दिवर्धन सब कलाओं में कुशल हो गया है, सुनिये- सर्वलिपियों का ज्ञान तो मानो उसका स्वयं का हो ऐसा हो गया है, गणित तो मानो उसने ही बनाया हो ऐसा हो गया है, व्याकरण तो उससे ही उत्पन्न हुआ हो ऐसा उत्तम ज्ञान उसे हो गया है । ज्योतिष तो मानो उसमें घर कर गया है. अष्टांग निमित्त तो उसके प्रात्मभूत हो गए हैं, छन्द शास्त्र में इतना प्रवीण हो गया है कि दूसरों को भी समझाता है। उसने नृत्य शास्त्र का भी अभ्यास किया है, संगीत का भी शिक्षण लिया है। प्रियतमा के समान हस्ति शिक्षा, साथी के समान धनुर्वेद, मित्र के समान आयुर्वेद, प्राज्ञापालक के समान धातुवाद और मनुष्य के लक्षण, व्यापार के क्रय-विक्रय का ज्ञान, लक्ष्यभेदी बाण, निशाना ताक कर अमुक पत्ते को ही किस प्रकार बींधना आदि विद्याएं तो उसकी दासी बन गई हैं। आपके समक्ष अधिक क्या वर्णन करू ? संक्षेप में ऐसी कोई कला नहीं बची है जिसमें कुमार पारंगत न हुआ हो ।
उपर्युक्त वर्णन सुनकर पद्म राजा की आँखों में हर्ष के अश्रु छलक आये । पश्चात् उन्होंने कलाचार्य से कहा, अार्य ! ठीक है, ऐसा ही होना चाहिये और ऐसा हो, इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है । आप जैसे गुरु की शिक्षा-दीक्षा से कुमार को क्या प्राप्त नहीं हो सकता ? आप जैसे गुरु को प्राप्त कर कुमार वास्तव में भाग्यशाली है।
कलाचार्य देव ! ऐसा न कहिये । हम क्या हैं ! सब आपका ही प्रताप है"
पदम राजा--- इन औपचारिक वचनों की क्या आवश्यकता है ? वस्तुतः आपकी कृपा से ही कुमार नन्दिवर्धन समस्त गुरगों को धारण करने वाला बना है, जानकर हमें अत्यधिक आनन्द हुअा है।।
कलाचार्य देव ! कार्य करने के लिये नियुक्त व्यक्ति को कभी भी अपने स्वामी को ठगना नहीं चाहिये । इस नियम के अनुसार मैं आपसे कुछ विशेष बात कहना चाहता हूँ। वह बात योग्य या अयोग्य कैसी भी हो आप मुझे क्षमा करेंगे । देव ! यथ.र्थ और मनपसंद दोनों विशेषतायें वाणी में मिलना कठिन है । (क्योंकि सच्ची बात कई बार अच्छी नहीं लगती और मधुर बोलने वाले सदा सच्ची बात नहीं कह पाते, कारण सच्चाई में कटुता आ ही जाती है ।।
पद्म राजा-आर्य ! आपको जो कुछ कहना हो निःसंकोच कहिये । सत्य बोलने में क्षमा मांगने की क्या आवश्यकता है ?
कलाचार्य-महाराज ! ऐसा कह रहे हैं तो सुनिये। आपने कहा कि कुमार नन्दिवर्धन सर्व गुण-सम्पन्न हुआ, इस प्रसंग में मेरा कहना है कि कुमार के स्वाभाविक स्वरूप को देखते हये ऐसा ही होना चाहिये, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु, जैसे कलंक से चन्द्रमा, कांटे से गुलाब, कंजूसी से धनाढ्य, निर्लज्जता से स्त्री, * पृष्ठ १४५
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