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________________ ११२ उपमिति-भव-प्रपंच कथा वैश्वानर का जन्म-स्वरूप __ मैं असंव्यवहार नगर से आगे चला तभी से मेरे अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकार के परिवार थे। इसी अन्तरंग परिवार में पहले से ही अविवेकिता नामक ब्राह्मणी मेरी धाय थी। मेरा जन्म हुआ उसी दिन मेरी धाय ने भी एक लड़के को जन्म दिया। उसका नाम वैश्वानर रखा गया। यह लड़का गुप्त रूप से तो प्रारम्भ से ही मेरे साथ था, पर अब वह सब को दिखाई देने योग्य स्पष्ट आकार में मेरे साथ उत्पन्न हुआ। मैंने जब इस ब्राह्मण पुत्र वैश्वानर को देखा तब उसका आकार थाउसके टेढे-मेढे और लम्बे-चौड़े वैर और कलह नामक दो पैर थे। स्थूल, कठिन और छोटी-सी ईर्ष्या तथा स्तेय नाम की जंघाएं (पिंडलियां) थीं। अत्यन्त टेडी-मेढी और विषम अनुशय (द्वष) तथा अनुपशम (अशान्ति) नामक दो ऊरु (सांथल) थे। एक तरफ से ऊँची पैशुन्य नामक कटि (कूल्हा) थी। परमर्मोद्घाटन नामक टेढा, विषम और लम्बा पेट था । अन्तस्ताप नामक सिकुडी हुई छोटी सी छाती थी। आड़े, टेढे, मोटे. पतले क्षार और मत्सर नामक भुजाएँ थीं । बांकी, टेढी और लम्बी शिर को अधर रखने वाली क्रूरता नामक गर्दन थी । होठों से बाहर निकले हुए और दूर-दूर, बड़े-बड़े असभ्यभाषण नामक दान्तों से वह बड़ा ही भयंकर लगता था । चण्डत्व और असहिष्णुता नामक जिन कानों के छेद मात्र दिखाई देते हों ऐसे दो कानों से वह हंसी का पात्र बना हुआ था । तामसभाव नामक बहुत चपटी नाक थी जो उस स्थान पर केवल चिन्ह के रूप में शेष रह गई थी जिससे वह हंसी का पात्र बन गया था। रौद्रत्व और नृशंस नामक दो गोल-मटोल आँखे थीं जो चिरमी जैसी लाल सुर्ख लगती थी जिससे उसका रूप महा भयंकर लगता था । अनार्य आचरण नामक मोटा तिकोना ललाट था जो हिलते रहने से नाटक की प्रतीति कराता था । परोपताप नामक अग्निशिखा जैसे पीले और घने केशभार से वह अपना वैश्वानर नाम यथार्थ कर रहा था। इस प्रकार के वैश्वानर नामक ब्राह्मण पुत्र का मेरे साथ ही जन्म हुआ था। __ अनादि काल से परिचय के कारण मेरा वैश्वानर पर स्नेह उत्पन्न हो गया। मैंने उसे अपना सच्चा मित्र समझ कर ही ग्रहण किया था, पर वास्तव में तो वह मेरा शत्रु था, यह बात उस समय मेरी समझ में नहीं आई। यह मेरा अन्तरंग परिजन और मेरी धाय अविवेकिता का पुत्र है इसलिये मेरा हितकारी ही होगा ऐसा दृढ़ विश्वास उस समय मेरे मन में था। मेरे मन के इस निर्णय का पता वैश्वानर को लग गया। 'अरे ! राजपुत्र तो मेरे प्रति प्रेम करता है' ऐसा सोचकर वह मेरे पास आने लगा। जब वह मेरे पास आया तो मैंने उसे गले से लगाकर उसके प्रति स्नेहभाव दिखाया । परिणाम स्वरूप हमारे बीच मित्रता बढ़ने लगी। फिर हमारी मित्रता इतनी बढ़ी कि घर या बाहर जहाँ कहीं मैं जाता, मेरा मित्र हमेशा मेरे साथ रहता, एक क्षण भी मेरे से अलग नहीं रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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