________________
१७२
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
में प्रसन्न हो जाते हैं, मुख-कमल विकसित और नेत्र विस्तरित हो जाते हैं, कहने वाले को पारितोषिक देते हैं, अपने को बड़ा मानते हैं, महोत्सव कराते हैं, आनन्द की दुन्दुभि बजाते है, अपने को कृतकृत्य और अपना जन्म सफल मानते हैं । ऐसी अवस्था में सामान्य लोगों की तो बात ही क्या ? इन्हीं इन्द्र या चक्रवर्ती को यदि कोई कहे कि अभी भवितव्यता आपके अनुकूल नहीं है, तो वे भयातिरेक से थर-थर कांपने लगते हैं, दीनता दिखाने लगते हैं और पल भर में उनका मुख विवर्ण हो जाता है, अाँखें भिच जाती हैं, कहने वाले पर क्रोध करते हैं, चिन्ता से गहरे विचार में डूब कर सूखने लगते हैं, शोक-बाहुल्य में अपने कर्तव्य भो भूल जाते हैं और भवितव्यता को प्रसन्न करने के लिये क्या उपाय किये जायं, इसकी योजना बनाने लगते हैं । अधिक क्या कहूँ ? भवितव्यता के असंतुष्ट होने पर पल भर भी उनके चित्त को शांति नहीं मिलती और किस प्रकार वह अनुकूल हो, इस विषय का उद्वेग उनके मन में बराबर बना रहता है । जब इन्द्र और चक्रवर्ती की भी ऐसी दशा होती है तब सामान्य प्राणी का तो कहना ही क्या ? पुनश्च, उस महादेवी भवितव्यता की जैसी इच्छा होती है वह वैसा ही करती है। दूसरा कोई प्राणी उसकी प्रार्थना करे, उसके पास रोये या उसे रिझाने का प्रयत्न करे तो उसकी भी वह कोई परवाह नहीं करती। मैं स्वयं भी उससे इतना भयोध्रान्त हूँ कि वह देवी इच्छानुसार जो कुछ करती है उसे मुझे बहुत अच्छा मानना पड़ता है । यद्यपि मैं उसका पति हूँ फिर भी उसके भृत्य की भांति 'जय देवी, जय देवी' कहते हुए उसके पास बैठा रहता हूँ। इस देवी का विशेष स्वरूप इस प्रकार है :
मेरी यह पत्नी भवितव्यता सर्वत्र उद्योगों में व्यस्त रहती है । अमुक भूवन के लोगों को अमुक वस्तु उचित है और अमुक वस्तु उचित नहीं, यह सब वह जानती है। जो प्राणी सो गये हों उनके विषय में भी वह जागृत रहती है । वह सब प्राणी और वस्तुओं को अलग-अलग कर सकती है । मदोन्मत्त गन्धहस्तिनी की भांति बिना किसी प्रकार की प्राकुलता के वह सारे विश्व में विचरण करती है । किसी से लवलेश भी नहीं डरती । कर्मपरिणाम महाराजा भी उसे बहुत सन्मान देते हैं, उसकी पूजा करते हैं । क्योंकि, आवश्यकता पड़ने पर कुछ काम हो तो महाराजा को भी उसका अनुसरण करना पड़ता है, उसको अपने अनुकूल करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त दुसरे महात्मा भी जब अपना कुछ कार्य करने की इच्छा रखते हैं तब भवितव्यता के अनुकूल होने पर ही करते हैं। इसीलिये तो कहा गया है--
बुद्धिरुत्पद्यते ताग् व्यवसायश्च तादृश : ।
सहायास्तादृशाश्चैव यादृशी भवितव्यता ।।
जैसी भवितव्यता होती है वैसी ही बुद्धि उत्पन्न होती है, काम भी वैसा ही सूझता है और सहायता भी उसी प्रकार की मिलती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org