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प्रस्ताव २ : गृहीत संकेता और प्रज्ञाविशाला
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नामक महापुरुष है । वह सर्व प्राणियों का हित करने वाला है, सकल भावों और स्वभावों को अच्छी तरह जानने वाला है । राजा और रानी की गुप्त से गुप्त बातों का रहस्य, उसके स्थान और उनके मर्मों को वह विशेष रूप से जानता है । (उस महात्मा सदागम से मेरी अच्छी पहचान है, मैं कभी-कभी उनसे मिलती रहती हूँ) । एक समय की घटना है कि एक बार मैं उनके पास गई तो उन्हें विशेष प्रानन्द में देखा । अतः उनसे मैंने आग्रहपूर्वक हर्ष का कारण पूछा । उत्तर में उन्होंने कहा, 'भद्र े ! तुझे इतना कुतूहल है तो तू मेरे हर्ष का कारण सुन । इस कालपरिणति रानी ने एक बार एकान्त में महाराजा से कहा कि, 'राजन् ! मैं स्वयं वन्ध्या नहीं हूँ । फिर भी लोग मुझे वन्ध्या कहते हैं, इस झूठे आरोप से अब मैं दुःखी हो गई हूँ । यद्यपि मेरे अनन्त पुत्र हैं, फिर भी मुझ पर दुर्जन प्राणियों की, दृष्टि न लग जाय इस भय से अविवेक आदि मंत्रियों ने मुझे वन्ध्या प्रसिद्ध किया, जिससे लोगों में ऐसी बातें हो रही हैं; जैसे, मेरे अपने बालक भी दूसरों के बालक हों । यह तो ऐसी बात हो गई कि जूँ प्रों से बचने के लिये कपड़े का ही त्याग कर दिया जाय । मेरे ऊपर वन्ध्यापन का जो झूठा आरोप लगाया गया है उसे अब आपको किसी भी प्रकार दूर करना चाहिये और मेरे सिर पर लगे इस कलंक के टीके को मिटाना चाहिये ।' राजा ने कहा, 'देवि ! मुझे भी मंत्रियों ने निर्बीज प्रसिद्ध किया है, इसलिये अपने दोनों के सिर पर कलंक का टीका एक समान है । तू थोड़ा धैर्य रख । दुनिया में अपना जो अपयश हुआ, उसको दूर करने का उपाय अब मुझे मिल गया है ।' ऐसा उपाय क्या है ? रानी के द्वारा पूछने पर राजा ने कहा, 'देवि ! प्रधान आदि के अभिप्राय की परवाह न करके इस मनुजगति नगरी नामक महाराजधानी में तेरे उदर से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ है, ऐसा प्रसिद्ध करेंगे और उस पुत्र का जन्मोत्सव धूमधाम से मनायेंगे | इस प्रकार करने से चिरकाल से मेरे ऊपर निर्बीजपन का और तेरे ऊपर बांझपन का जो अपयश एवं कलंक लगा हुआ है वह दूर हो जाएगा ।' राजा के वचन सुनकर रानी ने उन वचनों को सहर्ष स्वीकार किया । पश्चात् उन्होंने अपने विचारों को कार्यरूप में परिणित किया । प्रज्ञाविशाला ! इस भव्यपुरुष का जो जन्म हुआ है, वह मुझे बहुत प्रिय है । महाराजा और महारानी के इस पुत्र जन्म से मैं अपनी आत्मा को सफल मानता हूँ और इससे मुझे हर्ष हुआ है ।'
सदागम से ऐसा सुनकर मैंने उनसे कहा- आपके हर्ष का कारण बहुत अच्छा है । इस कारण से इस प्रकार भव्यपुरुष को महाराजा और महारानी के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध किया गया है, अब तेरी समझ में यह बात आ गई होगी ।
अगृहीतसंकेता - अच्छा बहिन अच्छा
हैं ठीक कहा । तुम्हारी बात से मेरा संदेह दूर हो गया। मैं जब यहाँ ग्रा रही थी ब बाजार में जो बातचीत
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