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________________ १२८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा निवृत्ति लेनी पड़ती है, यावज्जीवन मेरुगिरि के भार के समान शील का बोझ उठाना पड़ता है, स्वयं को सर्वदा मधुकरीवृत्ति (गौचरी) से जीवन यापन करना पड़ता है, विकृष्ट तपस्या से देह को तपाना पड़ता है, संयम को प्रात्मभाव में लाना पड़ता है, राग-द्वषादि का समूल नाश करना पड़ता है, अन्तर में स्थित अज्ञानरूपी अन्धकार के प्रसार को रोकना पड़ता है। अधिक क्या कहूँ ? प्रमाद-रहित चित्त से मोहरूपी महावैताल का नाश करना पड़ता है। मेरा शरीर तो कोमल शय्या और स्वादिष्ट भोजन से पालित-पोषित है और मेरे मन के संस्कार भी वैसे ही हैं। ऐसी दशा में दीक्षा रूप महानतम बोझ को उठाने का मेरे में तनिक भी सामर्थ्य नहीं है। साथ ही यह बात भी सोचने की है कि जब तक सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक द्वन्द्वों से मुक्त होकर दीक्षा ग्रहण न की जाए तब तक पूर्णतया शान्ति-साम्राज्य को प्राप्त कराने वाले और समस्त क्लेशों से छुड़ाने वाले है मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । ऐसी अवस्था में मुझे तो समझ ही नहीं पड़ती कि अब मैं क्या करूं ? 'स्वयं को क्या करना चाहिये' इस सम्बन्ध में निर्णय लेने में अक्षम होने के कारण संदेह रूपी हिंडोले पर चढ़ा हा यह प्राणी कितना ही समय अपने ऊहापोह में ही बिता देता है । [ ३६ ] द्रमुक का शुभ संकल्प तत्पश्चात् मूल कथा-प्रसंग में जो बात कही गई है उसका निष्कर्ष यह है :-"एक दिन उसने महाकल्याणक भोजन भरपेट खाने के बाद लीलामात्र से (हँसते हुए) थोड़ा सा कुभोजन भी खा लिया। उस समय अच्छा भोजन खाने से तृप्त हो गया था और सद्बुद्धि के पास होने से सुन्दर भोजन के गुण उसके चित्त पर अधिक असर करने लगे थे, जिससे वह विचार करने लगा -'अहो ! मेरा यह तुच्छ भोजन अत्यन्त खराब, लज्जाजनक, मैल से भरा, घणोत्पादक, खराब रस वाला, निन्दनीय और सर्व दोषों का भाजन है।' इन विचारों के फलस्वरूप उसको अपने तुच्छ भोजन पर घृणा उत्पन्न हुई और इससे उसने अपने मन में निश्चय किया कि 'चाहे जैसे भी हो मुझे इस कुत्सित भोजन का त्याग करना ही चाहिये।' ऐसा दृढ़ संकल्प करके उसने सद्बुद्धि को आदेश दिया --- 'मेरे भिक्षापात्र में पड़ा हुअा कुभोजन फेंक दो और इस भिक्षापात्र को धोकर साफ कर दो।' यह सुनकर सद्बुद्धि ने कहा-'इस विषय में तुम्हें धर्मबोधकर से परामर्श लेकर ही इसका त्याग करना चाहिये।' अनन्तर निष्पूण्यक सदबुद्धि के साथ धर्मबोधकर के पास गया और अपनी मनःस्थिति से उनको अवगत कराया। धर्मबोधकर ने उसे समझाया, उसके विचारों का परखा और इस सम्बन्ध में उसके दृढ़ निश्चयात्मक विचार जानकर निष्पुण्यक के * पृष्ठ ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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