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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
होने के समान निस्पन्द हो जाता है, कभी लोगों द्वारा 'अहो ! यह जानकार होकर भी कैसे विपरीत आचरण कर रहा है, इससे तो जडमूर्ख भी अच्छा' सुनकर खेद को प्राप्त करता है, कभी इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग की व्यथा से वह पांसलियों और हृदय में उठने वाले शूल के समान त्रस्त हो जाता है, कभी प्रमादी जीव मिथ्यात्व रूपी उन्माद से संतप्त हो जाता है और कभी उसे सदनुष्ठानरूपी पथ्यकारी भोजन पर अत्यधिक अरुचि हो जाती है। इस प्रकार अपथ्य सेवन में अनुरक्त यह जीव देशविरति चारित्र के मार्ग पर चलता हुआ भी अनेकविध विकारों से ग्रस्त होकर दुःखी बना रहता है ।
[ ३२ ] तद्दया द्वारा उद्बोधन
तदनन्तर का कथानक मूल कथा-प्रसंग में विस्तार से दिया जा चुका है, उसका सारांश निम्नलिखित है:
"इस प्रकार व्याधियों एवं पीडा से घिरे हुए और रोते हुए निष्पुण्यक को तद्दया ने देखकर विचार किया और कहा-'अपथ्यकारी भोजन करने से ही तेरी ये सब बीमारियाँ बढ़ी हैं।' तद्दया की बात सुनकर निष्पुण्यक ने कहा- 'इस तुच्छ और अपथ्य भोजन पर मेरी इतनी अधिक इच्छा रहती है कि मैं उसका स्वयं त्याग करने में तनिक भी समर्थ नहीं हूँ। फलतः अब आप ही मुझे इस अपथ्य भोजन का उपयोग करने से बार-बार रोकें।' तद्दया ने उसकी बात स्वीकार की। पश्चात् तद्दया के बार-बार रोकने से वह कुभोजन का थोड़ा-थोड़ा त्याग भी करने लगा जिससे उसकी व्याधियाँ कम होने लगीं । जब तद्दया पास में होती तो वह अपथ्य का त्याग करता, अन्यथा नहीं। तद्दया तो पहले से ही सम्पूर्ण लोक की देख-रेख के लिए नियुक्त थी, अतः उसे तो अनन्त प्राणीगणों के सार-संभाल के काम में रुकना पड़ता था जिससे वह निष्पुण्यक के पास तो यदा-कदा ही आ पाती थी। तद्दया की अनुपस्थिति में वह अपथ्य भोजन का सेवन करता था जिससे वह पुनः व्याधि-विकार से पीडित हो जाता था।"
निष्पूण्यक के समान जीव की भी ऐसी ही दशा होती है। यहाँ ध्यान में रखना चाहिये कि सद्गुरु को इस जीव पर जो दया आती है वही दया यहाँ मुख्य रूप से कार्यकर्वी है । इसी बात को रूपक के आलोक में दया को प्रधान रूप से कर्ता बताया है। उपालम्भ
दयासमुद्र सद्धर्माचार्य जब इस प्रमादी जीव से पुन: मिलते हैं तो उसे सांसारिक उपाधिजन्य पीडायों की आकुलता से क्रन्दन करते हुए पाते हैं तब वे उसे
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