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उपमिति भव-प्रपंच कथा
बन्ध
तत्पर हो, जो सकल ( परिपूर्ण) और निष्कल रूप (सम्पूर्णांश में एकरूप ) हो, जो ऐसे अनेक गुणों से युक्त हो वही परमात्मा है । वही परमार्थतः सच्चा देव है । ऐसी विवेक बुद्धि से अन्तःकरण ( शुद्ध भाव ) पूर्वक भक्ति करना [देवतत्त्व ], उन्हीं परमेश्वर द्वारा प्ररूपित जीव. अजीव, पुण्य, पाप. आस्रव, संवर. निर्जर, और मोक्ष - इन पदार्थों (तत्त्वों) को सन्देह रहित होकर स्वीकार करना, स्वरूप समझना और इन पर प्रतीति (विश्वास) रखना [ धर्मतत्त्व ] और उन परमात्मा द्वारा उपदिष्ट ज्ञान दर्शन चारित्रात्मक मोक्ष मार्ग में जो प्रवृत्ति करते हैं वे ही सच्चे साधु गुरु होने और वन्दन करने योग्य होते हैं [ गुरुतत्त्व ] ; ऐसी बुद्धि होना ही सम्यग् दर्शन है । जीव में सम्यग् दर्शन है या नहीं ? इसको जानने के लिये पाँच लक्षण या बाह्यचिह्न बतलाये गये हैं (इन्हीं को समकित के पाँच लिंग कहते हैं ) : १. प्रशम, १. संवेग, ३. निर्वेद, ४. अनुकम्पा और ५ प्रास्तिक्य । ऐसे सम्यग् दर्शन को अंगीकार करने वाले प्राणी को विश्व में बलवान लोगों द्वारा बताये हुए दुःखी र अविनीत जीवों पर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों का सम्यक् प्रकार से आचरण करना चाहिये । स्थिरता (धर्म के प्रति दृढ़ता ), तीर्थ (चेत्य) सेवा. ग्रागम-कुशलता (प्रर्हद् दर्शन सम्बन्धी निपुणता ), भक्ति और प्रवचन (शासन) प्रभावना ये पाँच भाव सम्यग् दर्शन को उज्ज्वलतम दीप्तिमान बनाते हैं । इस सम्यग् दर्शन को दूषित करने वाले ये पाँच दोष हैं: --- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाखण्ड प्रशंसा और संस्तवना । यह दर्शन समस्त प्रकार के कल्याणों का करने वाला है | दर्शन - मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकटित आत्मा के परिणाम को ही विशुद्ध सम्यग् दर्शन कहते हैं ।
सम्यग् जल से व्याधि की शान्ति
प्राचार्यदेव की वाणी सुनकर इस जीव के हृदय में सम्यक् प्रकार से धर्म के प्रति विश्वास जागृत होने से उसके कितने ही कठोर कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह जीव सम्यग् दर्शन को प्राप्त करता है । सत्तीर्थोदक के समान यह तत्व प्रोतिकर (तत्त्व प्रतीति रूप) जल धर्माचार्य ने इस जीव को बलपूर्वक पिलाया, इसको धर्मबोधकर द्वारा निष्पुण्यक को बलपूर्वक तत्त्व प्रीतिकर जल उसके मुंह में डाल दिया कथन के समान समझें । जब इस जीव को सम्यग् दर्शन पर सामान्य रूप से प्रतीति हुई उस समय उसके जो मिथ्यात्व की सत्ता उदय में थी वह क्षोण (नष्ट) हो गई, जो उदय में नहीं आई थी वह उपशान्त दशा को प्राप्त हो गई और
दी सत्ता प्रब केवल प्रदेशोदय से अनुभव की जाए ऐसी स्थिति को प्राप्त हो गई । पूर्व में कहा था कि निष्पुण्यक का उन्माद नष्टप्राय हो गया, किन्तु पूर्णत: नष्ट हो गया ऐसा नहीं कहा गया था, वैसे ही इस जीव का मिथ्यात्व क्षीण हो गया, पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ समझें । जैसे तीर्थजल पीने से निष्पुण्यक की व्याधियाँ
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