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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कि निर्ग्रन्थ संत, काल की विकरालता से भी भयभीत नहीं होते । बल्कि, उनके मन में, ग्वालों के पूर्वोक्त कथन-श्रवण से प्रादुर्भूत वह करुणापूरित भाव अान्दोलित हो उठा था, जिसमें, पापी चण्डकौशिक के विद्रोही-मन में भरी विकरालता को विगलित करके, उसके स्थान पर, उसमें अमृतत्व समाहित कर देने की चाह निहित रही थी।
वस्तुतः, स्वयं के अभ्युदय और उत्कर्ष की परम-समृद्धि को सम्प्राप्त कर लेना 'जिनत्व' और 'केवलित्व' की साधना की सफलता का द्योतक हो सकता है, पर, 'तीर्थङ्करत्व' की चरितार्थता तो तभी सार्थक बन पाती है, जब एक केवली, एक जिन, भव-भयत्रस्त मानवता के मन में अमृतत्व को प्रतिष्ठित कर पाने में सफल बनता है। महावीर के उक्त आचरण में, गोपालों द्वारा वर्जित मार्ग पर ही अग्रसर होने के मूल में, महावीर के तीर्थङ्करत्व की सफलता और चरितार्थता का एक सार्थक चिरस्थायी मानदण्ड स्थापित होने का संयोग पूर्व निर्धारित था; इस बात को, वे बखूबी जानते थे।
महावीर जानते थे कि चण्डकौशिक के मन में बसी विकरालता को, भयंकरता को निकाल कर फेंक देने के बाद, एक बार उसमें अमृत-ज्योति जगमगा उठी, तो फिर उसका सारा जीवन, अपने आप ज्योतिर्मय बन जायेगा।
महर्षि सिद्धर्षि प्रणीत, 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा के प्रस्तावना-लेखन के इस प्रसङ्ग में, आगम-वरिणत उक्त घटनाक्रम और उससे जुड़ा मेरा चिन्तन, आज मुझे सहसा स्मरण हो पाया। इसलिए कि महर्षि सिद्धर्षि का आशय भी 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के प्रणयन के प्रसङ्ग में, बहुत कुछ वैसा ही रहा है, जैसा कि किसी तीर्थङ्कर के पवित्र जीवन-दर्शन के अध्ययन-मनन, चिन्तन से प्राप्लावित आचरण में प्रतिस्फूर्त होना चाहिए। सिद्धर्षि जानते थे-चण्डकौशिक की भयङ्करता, बाह्य जगत् की भयङ्करता पर आधारित नहीं थी, बल्कि उसका आधार, उसके मन में, उसके अन्तस् में, गहराई तक जड़ें जमाये बैठा था। रावण भी, इसलिए 'राक्षस' नहीं था कि जगत् का बाह्य परिवेश राक्षसी था, बल्कि, वह इसलिए राक्षस था कि उसका स्वयं का समग्र अन्तःकरण 'राक्षसत्व' से, 'रावणत्व' से सराबोर रहा।
इसलिए, 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के प्रणयन का श्रमसाध्य दायित्वपूर्ण आचार, इस आशा के साथ निभाया कि यदि एक जीवात्मा का अन्त:करण भी, ज्ञान के आलोक से एक बार जगमगा उठा, तो उसका समग्र जीवन, ज्योतिर्मय बनने में देर नहीं लगेगी। इस आशय को, उन्होंने अपने इस कथा-ग्रन्थ में स्वयं स्पष्ट किया है--'इस ग्रन्थ को मैं इसलिए बना रहा हूँ कि इसमें प्रतिपादित ज्ञान आदि का स्वरूप, सर्वजन-ग्राह्य हो सकेगा। यदि, कदाचित् ऐसा न भी हो सका, तो भी, संसार के समस्त प्राणियों में से किसी एक प्राणी ने भी, इसका अध्ययन,
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